जानिये भगवान शिव के डमरू और त्रिशूल की उत्पत्ति व इसको धारण करने का रहस्य

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सावन का महीना चल रहा है और ऐसे में भगवान शिव के भक्त उनके पूजन में लगे हुए हैं, पर बहुत कम लोग जानते हैं कि भगवान शिव के डमरू और त्रिशूल की उत्पत्ति आखिर कैसे हुई, लेकिन आज हम यहां आप सभी के सामने इस भेद को खोल रहें हैं, ताकि आप भी इस बात को जान सकें कि भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल और डमरू होने के पीछे क्या कारण हैं, तो आइए जानते हैं इस बारे में…

1 – त्रिशूल की उत्पत्ति –
भगवान शिव को सभी शस्त्रों को चलाने में निपुण माना जाता है। पौराणिक कहानियों की मानें तो भगवान भोलेनाथ के धनुष का निर्माण ऋषि दधीचि की अस्थियों से हुआ था। इस धनुष का नाम “पिनाक” है। माना गया हैं कि जब सृष्टि का आरम्भ हुआ था, तब एक ब्रह्मनाद हुआ था और उससे भगवान शिव की उत्पत्ति हुई थी। भगवान शंकर की उत्पत्ति के साथ ही उनके साथ में तीनों गुणों रज, तम और सत्व की भी उत्पत्ति हुई थी। यह तीनों गुण ही भगवान के तीन शूल यानि त्रिशूल में परिणित हुए।

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2 – डमरू की उत्पत्ति –
भगवान शिव ने सृष्टि निर्माण के समय नृत्य किया था और डमरू को बजाया था। इस प्रकार से डमरू से दुनिया में संगीत, व्याकरण तथा ताल का जन्म हुआ। इसलिए ही भगवान भोलेनाथ अपने हाथ में हमेशा डमरू रखते हैं जो कि सृष्टि में संगीत, ध्वनि और व्याकरण पर उनके नियंत्रण का घोतक है। हम आपको यह भी बता दें कि भगवान भोलेनाथ के गले में पड़े सांप को “नाग वासुकी” कहा जाता है, जो कि नागों के राजा है। ये भगवान शिव के बहुत ही बड़े भक्त थे और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने उनको अपने गले में स्थान दिया था। इस प्रकार से भगवान शंकर के हाथ में हमेशा डमरू तथा त्रिशूल रहता है तथा गले में नाग वासुकी रहते हैं।

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