आपने देखा ही होगा कि हिंदू धर्म में सन्यासियों तथा बच्चों की मौत के बाद में उनका दाह संस्कार नहीं किया जाता बल्कि उनको दफना दिया जाता हैं, पर क्या आपने इसके पीछे की मान्यताओं तथा कारणों को जानने की कोशिश की हैं। अगर नहीं तो आज हम आपको इसी के बारे में बताने जा रहें हैं। आपके मन में कभी न कभी यह खयाल जरुर आया होगा की मृत शरीर को दफ़नाने या जलाने में से सही तरीका आखिर कौन सा हैं।
देखा जाए तो इस प्रश्न पर काफी समय से विवाद चलता आ रहा हैं। कुछ लोग अपने परिजनों को दफ़नाना पसंद करते हैं तो कुछ लोग उनका दाह संस्कार करना उचित समझते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार की क्रिया कई प्रकार से होती हैं पर जब बात साधू-संतो या बच्चे के मृत शरीर की आती हैं तो सभी लोग उनके शरीर को सिर्फ दफना कर ही अंतिम क्रिया समाप्त करते हैं।
ऐसे में यह प्रश्न उठाना लाजमी हैं कि जब अन्य लोगों के लिए हिंदू धर्म में दाह संस्कार यानि शव को जलाने की क्रिया होती हैं तो बच्चों और साधू-संतो पर भी यह नियम लागू क्यों नहीं किया जाता हैं। आज हम आपको इसी बात का उत्तर दे रहें हैं कि साधू-संतो व बच्चों के मृत शरीरों का दाह संस्कार न करके आखिर उनको दफनाया क्यों जाता है। आइये अब आपको इस बारे में विस्तार से बताते हैं।
इसलिए दफनाते हैं बच्चों और साधू-संतो के मृत शवों को –
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आपको बता दें कि बच्चों और साधू-संतो के शवों को दफ़नाने के पीछे यह मान्यता हैं कि साधू लोग आम लोगों की अपेक्षा बढ़े होते हैं। उनमें सर्वाधिक मानवीय गुण होते हैं और इसीलिए वह ईश्वरीय मार्ग पर आम लोगों से आगे रहते हैं। इन सभी गुणों के कारण वे पूजनीय हो जाते हैं इसलिए उनका दाह संस्कार नहीं किया जाता हैं बल्कि उनको कमल के पुष्प की भांति बैठा कर दफना दिया जाता हैं।
जहां तक बच्चों की बात हैं, तो बच्चे भी फरिशतों के समान होते हैं और बचपन में उनके अन्दर किसी प्रकार के अवगुण नहीं होते हैं। वह परम शुद्ध अवस्था में होते हैं। यही कारण हैं कि बच्चों को भी दफनाया जाता हैं।