इसे भारत की विडंबना कहें या दुर्भाग्य, जहां पर कई ऐसे विदुषी लोग हैं जिनका देश-विदेश के लोग भी लोहा मानते हैं। साथ ही अपने देश का गौरव बनाये रखने की कीमत देते हैं, पर भारत में उनकी अहमियत ना के बराबर है या फिर ऐसे लोग गुमनामी का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। उन्हीं में से एक हैं डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह। जिनका नाम यदि आप कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में लेंगे तो अधिक से अधिक लोग उनके सम्मान के लिए आगे आते दिखेंगे, परन्तु यह विडंबना देखिये कि भारत में ही जन्मे इस हीरे की परख को यहां कोई नहीं पहचान सका। भारत में इनके नाम से बहुत ही कम लोग परिचित हैं। डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह किसी समय में भारत में रामानुज की कोटि के गणितज्ञ बनकर उभरे थे। कभी इनका नाम गणित के क्षेत्र में पूरी दुनिया में गूंजता था। वशिष्ठ नारायण सिंह को अगर गणित का जादूगर कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जो वशिष्ठ नारायण सिंह शायद गणित के क्षेत्र में नोबल प्राइज जीत चुके होते वह आज गुमनामी में एक मानसिक रोगी के तौर पर जीवन गुजार रहे हैं।
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बिहार के भोजपुर जिला स्थित बसंतपुर गांव में एक सिपाही के परिवार में 2 अप्रैल 1944 को जन्मे इन गणितज्ञ ने छोटी उम्र में ही अपनी प्रतिभा से सभी को हैरान कर दिया था। सन् 1962 में नेतरहाच स्कूल से दसवीं की परीक्षा में इन्हें राज्यस्तर पर प्रथम स्थान मिला। प्रतिभा के धनी इस बालक को सही तरीखे से परखा अमेरिका के एक प्रोफेसर ने, जो विश्व गणित कॉन्फ्रेंस में भाग लेने पटना आये थे। यहीं पर इस बालक की गणित की विलक्षण प्रतिभा को देख कॉलेज के प्रोफेसर चकित रह गये और आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें अमेरिका ले गए।
इस प्रकार 1963 में वशिष्ठ बाबू रिसर्च स्कॉलर के तौर पर केलिफोर्निआ, यूएसए गये। प्रो. केली के मार्गदर्शन में उन्होंने उच्च श्रेणी में अपनी पीएचडी समाप्त की व नासा से जुड़ गये। वहां उन्होंने साइकल वेक्टर स्पेस थ्योरी पर गहन शोध किया। जिसकी वजह से विज्ञान के क्षेत्र में उनको बहुत यश मिला। शोध समाप्त कर वशिष्ठ बाबू भारत आये लेकिन उन्हें शीघ्र ही अमेरिका वापस जाना पड़ा। इस बार उन्हें वाशिंगटन में गणित का सह प्रोफेसर नियुक्त किया गया। ऐसा कहा जाता है कि डॉ. सिंह ने आइंस्टीन के सिद्धांत e=mc2 को भी चुनौती दी थी। जिनका लोहा पूरी अमेरिका मानती है। इन्होंने कई ऐसे रिसर्च किए जिनका अध्ययन आज भी अमेरिकी छात्र कर रहे हैं।
कहते हैं जब समय करवट लेता है तो उसके सामने सभी को हार माननी पड़ती है। ऐसा ही हुआ डॉ. वशिष्ठ नारायण के साथ। हाल-फिलहाल डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया से ग्रसित हैं। इसके बावजूद वे मैथ के फॉर्मूलों को सॉल्व करते रहते हैं।
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अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में उन्होंने सितंबर 1969 से जून 1971 तक 1165 डॉलर की रिसर्च एंड टीचिंग की नौकरी, परन्तु देश सेवा के ज़ज्बे कारण वह नौकरी छोड़कर आ गये। इसके बाद उन्होंने कानपुर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में मात्र 800 रुपये पर वर्ष 1971 से 1972 तक रिसर्च एंड टीचिंग का कार्य किया। इसके बाद वर्ष 1972 में ही वे सांख्यिकी संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कोलकाता में नौकरी पर चले गए। अमेरिका में उन्हें उनकी कबलियत के अनुसार दुगने से ज्यादा वेतन पर रखा गया था, परन्तु भारत में इतने कम वेतन के कारण उनकी पत्नी से अनबन होने लगी और तलाक भी हो गया। यही वह समय था जब उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया।
सिजोफ्रेनिया रोग की वजह से विक्षिप्त होने पर उनका इलाज डेविड अस्पताल व राजकीय मानसिक आरोग्यशाला रांची में कराया गया। मानसिक रूप से परेशान डॉ. वशिष्ठ को इलाज के लिए जब ले जाया जा रहा था तब रास्ते में खंडवा स्टेशन पर 9 अगस्त 1989 को वे उतर गए और भीड़ में कहीं खो गए। करीब पांच वर्ष तक गुमनाम रहने के बाद उनके गांव के लोगों ने उन्हें छपरा में भीख मांगते हुए पाया तो वे गांव लाए गए। इसके बाद भी हमारी राज्य सरकार ने उनके लिए कोई भी सुध ना ली।
बताया जाता है कि एक समय ऐसा था कि अमेरिका में गणित के इस जादूगर के ज्ञान की तूती बोलती थी। जिसका डंका पूरे अमेरिका में बज रहा था। अमेरिका चाहता था कि डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह अमेरिका में रहकर नासा के लिये कार्य करें। इसके लिये अमेरिका उन्हें मुंहमांगी कीमत देने को भी तैयार था, लेकिन राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रवाद की भावना से लबरेज युवा वशिष्ठ ने धन के ऊपर देश को तरजीह दी। अमेरिका के इस ऑफर को ठुकरा दिया, जिसका खामियाजा उन्हें इस तरह उठाना पड़ा। एक महान मस्तिष्क का मालिक अचानक विक्षिप्त हो गया। विडंबना देखिये कि देश के लिये सब कुर्बान करने वाले इस महान गणितज्ञ को देश में ढंग का इलाज भी नहीं नसीब हुआ।
हमारा भारत उन देशों में से है जहां पर अगर एक मंत्री की भैंस या कुत्ता गुम हो जाए तो संसद तक इस खबर से हिल जाती है। जिसको ढूंढने के लिए पूरा का पूरा सरकारी काफिला तैयार रहता है, पर देश के लिये सब कुर्बान करने वाले इस महान गणितज्ञ को देश में ढंग का इलाज भी नहीं नसीब हुआ। आज भी पागल की तरह जिंदगी बिता रहे इस देश भक्त को केंद्र और राज्य सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही है। बस उनकी जुबान पर अपनी पत्नी का नाम और भारत माता का नाम रह रह कर आता है। इन सब को देखते हुए अपने आप ही मुंह से यह शब्द निकल जाते हैं कि ‘मेरा भारत महान’।