कठुआ दुष्कर्म – आखिर समाज में साम्प्रदायिकता के बीज क्यों बोना चाहता है भारतीय मीडिया

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कठुआ दुष्कर्म का मामला अभी भी गर्म है हालही में दिल्ली उच्च न्यायलय ने इस मामले को साम्प्रदायिक रंग देने वाले मीडिया घरानों पर जुर्माना लगाया है। अब सवाल यह पैदा हो जाता है की हमारे देश का मिडिया कानून के विरुद्ध जाकर समाज को तोड़ने की कोशिश में आखिर क्यों जुटा हुआ है। हालही में दलितों द्वारा 2 अप्रैल को किया गया आंदोलन आपको याद होगा ही। इस आंदोलन के बाद में केंद्र सरकार दलित अधिकारों के प्रति जिस नरमी से पेश आई। उससे ही पता लगता है की सरकार कहीं से कहीं तक किसी भी प्रकार के जातिवाद या धर्मवाद को देश की अखंडता के बीच नहीं लाना चाहती। फिर आखिर कठुआ मामले में भारतीय मीडिया के चेहरे पर कालिख क्यों पुती। आखिर क्या जरुरत थी मीडिया घरानों ने इस प्रेस के कानून को धत बता कर इस मामले को हिंदू-मुस्लिम रंग दिया। भारतीय दंड सहिंता के अनुसार “कोई भी मिडिया घराना किसी भी रेप पीड़ित की तस्वीर तथा उसके वास्तविक नाम को उजागर नहीं कर सकता है।

यदि वह ऐसा करता है तो यह कानून का उलंघन माना जायेगा।” मामले को यदि बारीकी से देखें तो हमारे देश के मीडिया घराने इतने असाक्षर भी नहीं है की वह इस नियम को नहीं जानते होंगे। इस बात का प्रत्यक्ष उद्धरण है दिल्ली का “निर्भया केस”, इस केस के बारे में आप सभी को पता होगा ही पर इस केस में पीड़ित लड़की का नाम आज कितने लोग जानते हैं ? ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने उसकी कोई सामान्य तस्वीर देखी होगी। ऐसे लोग नगण्य है। कारण है की उस समय देश की मीडिया ने भारतीय दंड सहिंता के उस नियम का पूरा पालन किया जिसके बारे में आपको ऊपर बताया गया है। इस कारण किसी भी मीडिया घराने ने न तो लड़की की तस्वीर जारी की थी और न ही उसका असल नाम जाहिर किया था। हम लोग आज भी उसको दिए गए “निर्भया” नाम से ही जानते हैं।

कठुआ दुष्कर्मImage source:

अब मामले 2 है। एक दिल्ली की निर्भया केस और एक कश्मीर की आशिफ़ा केस । दोनों ही केस रेप और मर्डर के हैं। तब आखिर भारतीय मीडिया ने आशिफ़ा का नाम और तस्वीर को ही क्यों उजागर किया। जब की निर्भया केस में हमारी इसी मीडिया ने कानून के अनुसार ही पूरी रिपोर्टिंग की थी। यह दोनों केस और इन दोनों के मध्य मीडिया बदले मिडिया घरानों के रंग को देख कर कोई भी सहज अनुमान लगा सकता है की भारतीय मीडिया की असल मानसिकता आखिर क्या है। इसको एक प्रकार से दुःखपूर्ण ही कहा जायेगा की जो मिडिया लोगों को जागरूक करने का साधन बनने के लिए समाज में उतरा था। वह अब समाज में साम्प्रदायिता के बीज बोने में लगा गया है।

कठुआ दुष्कर्मImage source:

आपको बता दें की हालही में दिल्ली उच्च न्यायलय ने इस संबंध में एक अहम आदेश दिया है। बुद्धवार को दिए गए इस आदेश में उच्च न्यायालय ने कहा है की “जिन भी मीडिया घरानों द्वारा कठुवा मामले की पीड़िता की तस्वीरें तथा नाम को उजागर किया गया है। उन पर 10-10 लाख लगाया जुर्माना लगाया गया है साथ ही कहा है की जिस किसी ने ऐसा किया है। उसको 6 माह की जेल भी हो सकती है। जुर्माने की यह रकम जम्मू-कश्मीर के पीड़ित राहत फंड में भेजी जाएगी।”

मीडिया घरानों का नया बहाना –

बुद्धवार को पीड़िता की पहचान उजागर करने वाले सभी मीडिया घरानों ने दिल्ली उच्च न्यायलय से माफ़ी मांग ली। इस संबंध में दोषी मीडिया घरानो के वकील की और यह कहा गया की “पीड़िता की पहचान जाहिर करने की गलती कानून की जानकारी नहीं होने और इस गलतफहमी के कारण हुई कि चूंकि पीड़िता की मौत हो चुकी है, ऐसे में उसका नाम लिया जा सकता है।”

देखा जाएं तो यह एक बचकानी बात ही है क्युकी कुछ वर्ष पहले हुए निर्भया केस में किसी मीडिया घराने से ऐसी कोई गलती नहीं हुई थी। जिसमें उनको “कानून की जानकारी” नहीं थी। उस समय सारे मामले को कानून के अंदर रहकर ही सभी मीडिया घरानो ने प्रजेंट किया था। तब आखिर अब ऐसा क्या परिवर्तन आ गया की सभी मीडिया घराने अचानक से प्रेस के लिए बने कानूनों को भूल गए। दोषी मीडिया घरानो की और वकील का कहना है की पीड़िता की मौत हो गई है इसलिए उसका नाम लिया जा सकता है। यह बात भी तर्कपूर्ण नहीं है क्युकी निर्भया केस के मामले में इस प्रकार का कार्य किसी मीडिया घराने ने नहीं किया था कारण था कानून की जानकारी। लेकिन जैसे ही बात कठुआ केस की आई तो सभी मीडिया घराने अचानक से कानून भूल गए यह बड़ी आश्चर्य की बात है। यदि कोई एकाद चैनल ऐसा करता तब बात समझ आ सकती थी लेकिन अधिकतर मीडिया घराने एक साथ प्रेस के लिए बने कानून को भूल गए। इस बात को आखिर कहां तक हजम किया जा सकता है ?

हम इस बात को स्वीकार करते हैं की अपराध करने वाला अपराधी ही होता है। उसी प्रकार जैसे एक आतंकवादी सिर्फ आतंवादी होता है। उसका न कोई धर्म होता है और न ही कोई मजहब। जो व्यक्ति भी गैर क़ानूनी कार्य करता है उसको कानून के हिसाब से सजा मिलनी ही चाहिए लेकिन समाज को जागरूक करने वाली मीडिया यदि “विचारो की स्वतंत्रता” तथा प्रेस के लिए बने कानूनों को एक और रख कर आगे कदम रखती है तब समाज में नकारात्मक भावना का उदय होता ही है। ऐसे में सरकार को ऐसे मीडिया घरानो को न सिर्फ तुरंत अपने नियंत्रण में ले लिया जाना चाहिए बल्कि उन पर कठोर कार्यवाही भी की जानी चाहिए।

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