हिलकाका गांव, जिसे किसी वक्त में आतंकी अपनी जन्नत समझते थे आज के वक्त में आतंकी इस गांव में आने से डरते हैं। वजह यह है कि इस गांव के लोग अब आतंकियों की लाशों को कुत्तों को खिला देते हैं। हमें पता है कि अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसा कौन सा गांव है और इस गांव में आखिर ऐसा क्या हुआ है? साथ ही आतंकियों की ये जन्नत उनके लिए मनहूस कैसे बन गई? ऐसे ही कई सवालों के जवाब देती है इस गांव की रोचक कहानी जिसे आज हम आपको बताने जा रहे हैं।
पहाड़ी की चोटी पर बसा कश्मीर का एक गांव हिलकाका एक वक्त में आतंकियों के लिए उनकी जन्नत हुआ करता था, क्योंकि इस गांव से आतंकियों को एलओसी से घुसपैठ कर कश्मीर घाटी जाने में काफी आसानी होती थी। बताया ये भी जाता है कि ये खूंखार आतंकी उमर मूसा का अड्डा था, लेकिन अब ये गांव आतंकियों से आजाद हो चुका है। आज स्थिती यह है कि इस गांव के ग्रामीण अब आतंकियों के शवों को दफनाने की जगह कुत्तों को खिला रहे हैं। जिससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आतंकियों को लेकर इस गांव के लोगों में कितना गुस्सा है और उन्होंने आतंकियों से अपने गांव को आजाद कराने के लिए कितनी मेहनत की होगी।
इन गांव वालों के मुताबिक आतंकी उमर मूसा से अपने गांव को आजाद कराने के लिए उन्होंने करीब एक महीने से ज्यादा लड़ाई लड़ी। उनमें आतंकियों के खिलाफ गुस्सा इस कदर हावी था कि उन्होंने आतंकियों को दफनाने की जगह उन्हें कुत्तों को खिलाना ज्यादा मुनासिब समझा। गांव वाले आज भी उस समय यानि 2003 के वक्त को याद कर सिहर जाते हैं जब यहां सिर्फ आतंकियों की तूती बोलती थी। वे कभी ग्रामीणों को लालच देकर, तो कभी जबरदस्ती कर उन्हें जिहादी बनाने की कोशिश करते थे। जिसके खिलाफ कश्मीर की गुज्जर कम्युनिटी के लोगों ने जम्मू पीस मिशन बनाया। इसकी खबर आतंकियों को लगते ही उन्होंने गुज्जर हाजी मोहम्मद आरिफ को मौत के घाट उतार दिया, लेकिन फिर भी वहां के लोगों ने हार नहीं मानी।
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हाजी मोहम्मद की जंग को उनके छोटे बेटे ताहिर हुसैन ने जारी रखा। आतंकियों ने उसे खरीदने के प्रयास से उसे 52 लाख रुपये देने का लालच भी दिया, लेकिन अपने को हिंदुस्तानी बताकर उन्होंने इसे अस्वीकार किया। फिर 26 जनवरी 2003 को गांव वालों ने सेना के साथ मिलकर आतंकियों के खिलाफ एक ऑपरेशन सर्प विनाश शुरू किया। जिसमें पाया गया कि हिलकाका गांव में करीब 700 आतंकी मौजूद हैं। जिसके चलते उन्होंने सबसे पहले गांव को खाली करवा दिया। इसके बाद करीब एक माह तक गांव के लोग जंगल में रहे। जिनको सेना हेलिकॉप्टर से खाना पहुंचाती थी। कुछ महीने बाद उस गांव में रह रहे आतंकियों पर गुज्जरों ने 17 अप्रैल 2003 को हमला कर दिया। वह 17 मई तक उनसे लड़ाई लड़ते रहे और आखिरकार उन्हें वहां से उखाड़कर ही दम लिया।
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बहरहाल वो गांव आज के वक्त में आतंकियों से आजाद है, लेकिन आपको बता दें कि आज के वक्त में भी उन लोगों को अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिए परेशान होना पड़ रहा है। एक तरफ जहां इस गांव के लोग सरकार से मूलभूत सुविधाओं के लिए मांग कर रहे हैं, वहीं वह दिल्ली तक कई बार अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए गुहार भी लगा चुके हैं और सरकार से उम्मीद करते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा में सरकार उनकी मदद करे। जिससे उनके बच्चे पढ़ लिख कर देश की रक्षा में अपना योगदान दे सकें। साथ ही उनकी जरूरत की मूलभूत चीजें भी सरकार उनको मुहैया करवाए, क्योंकि अभी भी इस गांव के करीब 200 घरों के बच्चों को पढ़ने के लिए 25 से 30 किलोमीटर दूर सूरनकोट तक जाना पड़ता है। ऐसे में हम भी उम्मीद करेंगे कि भारत सरकार इन गांव वालों की जल्दी से जल्दी सुन ले। जिससे उनकी परेशानियां खत्म हो जाएं।