चुड़ैल, डायन और टोहनी आदि ऐसे शब्द है जो महिलाओं से जुड़े हुए है। हमारे कहना का तात्पर्य यह है कि यह शब्द कुछ विशेष प्रकार की महिलाओं के लिए प्रयोग किए जाते है। जो महिला शरीर में न रहकर लोगों को परेशान करती है उसे चुड़ैल कहा जाता है। वहीं जादू टोने वाली महिला को टोहनी या डायन कहा जाता है। आज हम डायन प्रथा की शुरूआत के विषय में आपको जानकारी देने जा रहें हैं कि यह प्रथा कब और कहां से प्रांरभ होकर देश में फैली।
माना जाता है कि आजे से करीब 500 वर्ष पूर्व यानी की 15वीं शताब्दी में काले जादू के बल पर महिलओं के डायन बनने की शुरूआत हुई। महाराष्ट्र में स्थित लातूर नामक जिले के हारांगुल गांव से इस प्रथा की शुरूआत हुई है। वैसे तो बंगाल भी काले जादू के लिए विशेष रूप से जाना जाता है लेकिन माना जाता है कि डायन प्रथा का आंरभ हारांगुल से ही हुआ था। इसके बाद से ही महिलाओं के डायन बनने का क्रम शुरू हुआ। इस गांव की महिलाएं काले जादू की मदद से डायन बन गई। धीरे धीरे पूरे गांव की महिलाएं डायन बनना शुरू हो गई। देखते ही देखते इस गांव के लोगों में मुसीबत का पहाड़ टूटना शुरू हुआ। डायनों ने यहां के भोले भाले लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया। पहले यह काम केवल रात में ही होते थे, लेकिन बाद में डायन अपना प्रभाव दिन के उजाले में भी दिखाने लगी।
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डायनों के प्रकोप के कारण गांव के जवान लड़के एकाएक आस-पास के पेड़ों पर लटकर जान देने लगे। जवान लड़को का वशीकरण कर डायन उनके शरीर से सारा खून चूस लिया करती थी। इसके अलावा खून से कई प्रकार की तांत्रिक क्रियाओं को भी अंजाम दिया गया। इन सब से गांव वाले परेशान हो गए और उन्होंने इन डायनों को पड़कर पेड़ से बांध दिया और उन्हें जला दिया गया। लेकिन इन डायनों ने मरते हुए कहा कि वो अपना बदला लेने के लिए वापस आएंगी।
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तब से आज तक इस गांव में कई सारी चीजों को वर्जित कर दिया गया है। जिसे आज भी माना जाता है। कहा जाता है कि अगर कोई भी गांव के पेड़ों पर थूकेगा या पेड़ों के नीचे सो जाएगा तो वो डायन वापस आ जाएंगी। वहीं गांव वालों का कहना है कि आज भी डायनों की आत्मा रात में लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करती है लेकिन अब वह उतनी शक्तिशाली नहीं है। इसी गांव की कहानी पर ही टीवी पर कई सारे सीरियल बनाए गए हैं।