पुरस्कार लौटाना, ये कैसा विरोध?

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देश में इस समय मानों पुरस्कार लौटाने की जैसे बाढ़ सी आ गई है। पुरस्कार पाने की खबरों को जितनी अहमियत नहीं दी जा रही उससे ज्यादा पुरस्कार लौटाने की खबरों को सुर्खियां बनाया जा रहा है। लेखक, कलाकारों और वैज्ञानिकों के बाद अब फिल्मकार भी इस जंग में सरकार के खिलाफ कूद चुके हैं।

इन फिल्मकारों का कहना है कि वे यह पुरस्कार सरकार को इसलिए लौटा रहे हैं, क्योंकि वे देश में बढ़ती हिंसा ,साम्प्रदायिकता से दुखी हैं। ऐसे में इन सभी से यह सवाल पूछना लाजमी है कि क्या उनके पुरस्कार लौटाने से देश में हिंसा, साम्प्रदायिकता जैसी घटनाएं रुक जाएंगी ?
पुरस्कार लौटाना राष्ट्र का ‘‘अपमान’’

इस मुद्दे को लेकर गायक अनूप जलोटा ने भी अपनी राय को सबके साथ साझा कर दिया है। उन्होंने ‘‘बढ़ती असहिष्णुता’’ के विरोध में राष्ट्रीय एवं अकादमी पुरस्कार लौटाने को राष्ट्र का ‘‘अपमान’’ करार दिया। अनूप जलोटा का कहना है कि दिया गया पुरस्कार राष्ट्रीय पुरस्कार है और किसी विषय को लेकर इसे लौटाना कुछ और नहीं बल्कि पुरस्कार और राष्ट्र का अपमान है। अगर कोई स्थिति में सुधार या कोई बदलाव चाहता है तो अपना विरोध जताने के लिए एक साथ बैठकर राष्ट्रपति से मिले।

अंत में बस यही कहा जा सकता है कि आजाद देश में सबको अपना विरोध जताने का पूरा हक है, लेकिन अपने पुरस्कार लौटा कर विरोध करने का कोई मतलब नजर नहीं आता। पुरस्कार लौटाने से न तो परिस्थितियां बदलने वाली हैं और ना ही सरकार बदलने वाली है। इतिहास गवाह है कि लेखकों की कलम ने बड़े -बड़े सत्ता परिवर्तन किए हैं। विरोध का भी सबका अपना-अपना तरीका होता है। ऐसे में यह समझने की जरूरत है कि विरोध का उचित तरीका क्या है?

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