खेल जगत में वैसे तो समय-समय पर बदलाव होते रहते हैं। कुछ बदलाव खेलों को और बेहतर बनाने के लिए किए जाते हैं, लेकिन हाल ही में दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने कुछ ऐसे फैसले लिए जिसके कारण पूरा खेल जगत ही हिल गया। दरअसल दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने देश के पांच खेल संघों रग्बी, क्रिकेट, फुटबॉल, एथलेटिक्स और नेटबॉल एसोसिएशन को आने वाले एक साल तक किसी भी तरह के बड़े खेल आयोजन की मेजबानी करने से रोक दिया है। यहां आपको बता दें कि कुछ इसी तरह की घटना सालों पहले भी हुई थी और उस समय यह घटना भारत में हुई थी।
मीडिया को इस विषय पर पूरी जानकारी देते हुए दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने बताया है कि इन 5 खेल संघों ने खेलों में भेदभाव किया है। अश्वेत लोगों के देश के मूल निवासी होने के बावजूद इन 5 खेल संघों ने अश्वेत खिलाड़ियों की अनदेखी करते हुए गोरे खिलाड़ियों को ही मौका दिया है। इतना ही नहीं देश की लगभग 80 प्रतिशत तक की जनसंख्या अश्वेत लोगों की है और इसी कारण दो बार रग्बी विश्व कप विजेता टीम दक्षिण अफ्रीका की गर्वनिंग बॉडी 2023 में आयोजित किए जाने वाले रग्बी विश्व कप की मेजबानी नहीं कर सकेगी।
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महात्मा गांधी ने किया था क्रिकेट टूर्नामेंट का विरोध
दक्षिण अफ्रीका में जहां गोरे-काले रंग को लेकर भेदभाव किया जा रहा है वहीं भारत में उस समय हुए झगड़े का कारण धर्म था। लगभग 100 साल पहले भारत में पांच टीमों के बीच होने वाला क्रिकेट टूर्नामेंट उस समय पूरी दुनिया में बहुत चर्चित हुआ था, लेकिन किसी को कभी पता ही नहीं चला कि कब इस खेल में धर्म ने अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना ली। इसी कारण महात्मा गांधी ने इस टूर्नामेंट का विरोध करना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी का यह विरोध कम से कम 30 या 35 साल तक चला था। वैस आपको बता दें कि महात्मा गांधी अपने स्कूल के दिनों में स्वयं एक क्रिकेटर के रूप में क्रिकेट टूर्नामेंट्स में हिस्सा लिया करते थे।
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धर्म के आधार पर बनी थी टीमें
पांच टीमों के बीच खेले जाने वाले इस क्रिकेट टूर्नामेंट का प्रारम्भ सन् 1877 में हुआ था। शुरूआत में यह टूर्नामेंट जोरास्ट्रियन क्रिकेट क्लब के पारसी सदस्यों और बॉम्बे जिमखाना के यूरोपियन सदस्यों के बीच हुआ था। इसके बाद इस टूर्नामेंट का आयोजन हर साल किया जाने लगा, लेकिन 1907 में इस सालाना सीरीज में हिन्दू क्रिकेट टीम की भी एंट्री हो गई जिसके कारण यह क्रिकेट सीरीज त्रिकोणीय सीरीज बन गई। इसके बाद 1912 में मोहम्मडन जिमखाना के रूप में मुस्लिम क्रिकेट टीम ने भी इसमें हिस्सा लिया। जिसके बाद इस टूर्नामेंट को क्वेडरेंगुलर टूर्नामेंट कहा जाने लगा।
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इस टूर्नामेंट में शामिल हुई सभी टीमें धर्म के आधार पर बनाई गई थी और इसी के कारण यह लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय भी हुआ। जिसके कारण पहले विश्व युद्ध के समय भी इस टूर्नामेंट को खेला गया। जहां पहले विश्व युद्ध के समय देश में तबाही मच रही थी, वहीं इस टूर्नामेंट का आयोजन किया जाता रहा। जब यह टूर्नामेंट लोगों की पसंद बना हुआ था उसी समय देश में आजादी की मांग की जा रही थी, लेकिन धर्म के नाम पर खेले जाने वाले इस टूर्नामेंट के बारे में महात्मा गांधी अच्छे से समझ रहे थे कि यह खेल एक खेल नहीं बल्कि देश को धर्म के आधार पर बांटने का माध्यम है।
जाति के नाम पर टीमों में होने लगा भेदभाव
अंग्रेज सरकार यह बहुत अच्छे से जानती थी कि अगर उन्हें महात्मा गांधी की आजादी की लड़ाई को रोकना है तो उन्हें देश को बांटना पड़ेगा और उसके लिए केवल धर्म को ही आधार नहीं बनाया जा सकता। इसलिए उन्होंने इस खेल में ऊंची व नीची जाति को भी शामिल किया। जिसके कारण हिन्दू टीम में पलवनकर बालू को दलित होने के कारण टीम का कप्तान नहीं बनाया गया। पलवनकर बालू एक बहुत ही अच्छे गेंदबाज थे, लेकिन जाति से वो एक दलित थे। जब इस विषय की जानकारी महात्मा गांधी को मिली तो उन्होंने इसका बहुत विरोध किया था। जिसके कारण हिन्दू क्रिकेट टीम के मैनेजमेंट ने सन् 1923 में बालू के ही छोटे भाई पलवनकर विट्ठल को हिन्दू क्रिकेट टीम का कप्तान बनाया।
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क्रिकेट टूर्नामेंट में किए जाने वाले बदलाव को लेकर यह महात्मा गांधी की पहली जीत थी और इस जीत ने उन्हें एक राह दिखाई। जिसके बाद सन् 1924 के आते-आते क्रिकेट टूर्नामेंट में होने वाले इस भेदभाव का पूरे देश में विरोध होने लगा। गांधी जी के इस टूर्नामेंट को लेकर किए गए विरोध का देश में कुछ ऐसा प्रभाव देखने को मिलने लगा कि जो टूर्ना मेंट पहले विश्व युद्ध के समय भी बन्द नहीं किया गया था, वो महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के समय कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया। जिसके कारण यह टूर्नामेंट 1934 तक बन्द ही रहा।
इसके बाद तो हर जगह इस टूर्नामेंट का विरोध होने लगा। जिसके कारण 1935 में एक राष्ट्रीय समाचार पत्र बॉम्बे क्रॉनिकल में भी एक लेख के माध्यम से इस टूर्नामेंट को धर्म और जाति के नाम पर बांटने के स्थान पर जोन के आधार पर खेलने की सलाह दी गई। इसके बाद 1937 में एक पांचवीं टीम का निर्माण किया गया, जिसका नाम द रेस्ट रखा गया। इस टीम में यहूदी, ईसाई और बौद्ध धर्म के लोगों को शामिल किया गया था, लेकिन इसके बाद भी गांधी जी का विरोध कम नहीं हुआ था। जिसके बाद 1946 में इस टूर्नामेंट को बन्द कर दिया गया।