आज से हज़ारों साल पहले जब सभ्यताओं का विकास नहीं हुआ था उस समय लोग समय का या दिन बीतने का अनुमान कैसे लगाते रहे होंगे ये सवाल हर किसी के ज़हन में आ सकता है। इसका जवाब तलाशने के लिए हमें कल्पना करनी होगी उस काल की जब इंसान पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर रहता था। दरअसल अति प्राचीन काल से ही मनुष्य सूर्य की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर प्रात:, दोपहर, संध्या एवं रात्रि की कल्पना करता था, समय सूर्य की दशा पर आधारित होते हैं, दिन के जिस प्रहर में सूर्य जिस दिशा में नज़र आया होगा उसी के आधार पर लोगों ने समय की कल्पना की होगी। पक्षों, महीनों, ऋतुओं और वर्षों की कल्पना इसी के आधार पर की गई होगी। बाद में धीरे-धीरे इंसानों ने समय को बारीकी से नापने के लिए धूपघड़ियों का प्रयोग शुरू किया। रात के वक्त जब सूर्य नहीं दिखता था तब लोग नक्षत्रों और तारों को देख कर समय का अनुमान लगाते थे, लेकिन इंसान समय को सही ढ़ंग से नापने की कोशिश में लगा रहा। भारतीय ज्योतिष की प्राचीन पुस्तकों में पहली बार पानी और बालू से समय नापने के यंत्र बनाने का जिक्र मिलता है। ज्योतिष की ये प्राचीन पुस्तकें हैं पंचसिद्धांतिका और सूर्यसिद्धांत, लेकिन इन समय नापने वाले यंत्रों के साथ दिक्कत ये आई कि ये आकार में काफी बड़े थे, सटीक नहीं थे, इसके अलावा असुविधाजनक भी थे।
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दुनिया में सबसे पहले घड़ी का निर्माण कब हुआ और किस देश में सबसे पहले घड़ी बनाई गई, ये एक बड़ा सवाल है। हालांकि घड़ी के बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण तो नहीं मिलते हैं, लेकिन जो भी जानकारी हासिल है उसके मुताबिक सबसे पहले 15वीं शताब्दी में एक प्राचीनतम घड़ी पेंटिग में देखने को मिली थी। ये पेंटिंग ड्यूक ऑफ लॉरैंस, कोसीमो प्रथम की है। जानकारों का मानना है कि दुनिया की सबसे पुरानी दिखाने वाली घड़ी जिसे एक पुरानी पेंटिंग में खोज निकाला गया है, और कोसोमो प्रथम इटली के प्रथम और द मेदिची परिवार के पहले ड्यूक ऑफ फ्लोरेंस थे, जिनकी पेंटिंग में एक सोने की घड़ी दिखाई दी थी। लंदन के साइंस म्यूज़ियम में उस साढ़े चार सौ साल पुराने चित्र की जांच की जा रही है, जहां तक चित्र में दिखाई गई घड़ी की बात है तो सन 1500 के बाद, जर्मनी में पहली बार घड़ियों का ज़िक्र आया था। जानकार ऐसा मानते हैं कि चित्र में दिखाई गई घड़ी दक्षिण जर्मनी की हो सकती है, इतिहास में ये दर्ज है कि कोसीमो विज्ञान और तकनीक से जुड़ी चीजों को काफी पसंद करते थे। अनुमान है कि उस समय आई नई घड़ी उनके पास हो वो उसे बड़े फ़क्र से दिखाना चाहते हों।
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एक समय ऐसा भी था जब आम लोगों के पास समय की जानकारी के लिए घड़ी नहीं होती थी, उस समय शहर की ऊंची इमारतों पर वॉच टॉवर लगाए जाते थे, और हर घंटे में लोगों को सूचित करने के लिए घड़ियां आवाज़ भी करती थीं, जिससे लोगों को सही समय की जानकारी मिलती थी। दुनिया की कई मशहूर इमारतों में आज भी वो पुरानी घड़ियां लगी हैं और सैकड़ों साल से वो चल भी रही हैं। कालांतर में समय के साथ काफी बदलाव हुए, वैज्ञनिकों ने सटीक टाइम पर चलने वाली घड़ियों का निर्माण किया, दुनियाभर में समय का अंतरराष्ट्रीय मानक तय किया गया। जीएमटी यानी (ग्रीनविच मीन टाइम) पर इसका भी अस्तित्व अब खत्म होने वाला है। इनको रिप्लेस कर रही हैं परमाणु घड़ियां। बीते 120 सालों से जीएमटी पृथ्वी के घूमने से समय का आंकलन करता आ रहा है, पर अब विशेषज्ञ परमाणु घड़ी को इसका विकल्प बनाने पर विचार कर रहे हैं। 1955 में पहली बार परमाणु घड़ियों पर विचार किया गया, परमाणु घड़ी के कई उपयोग हैं मसलन जीपीएस यानी (ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम) के साथ ही ये इंटरनेट में भी उपयोगी हैं। रेडियो ट्रांसमीटर में भी ये इसलिए उपयोगी हैं क्योंकि लॉन्ग वेब और मीडियम वेब ब्रॉडकास्टिंग स्टेशन को ये सटीक वेव्स मुहैया कराने में मदद करती हैं, रेडियो खगोल विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी ये घड़ी फायदेमंद साबित हो सकती है।