ओलपिंक के बाद पूरे देश में अब रंग जमा रहा है पैरालंपिक. जिसमें विकलांग लोगों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका दिया जाता है। इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर वे बता देते हैं कि वो किसी के आसरे के मोहताज नहीं होते यदि मन में लगन और हौंसला हो तो ये लोग भी अंधेरों में अपनी मंजिल को ढूंढ़ ही लेते है और इस बात को साबित कर दिखाया है सिल्वर मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला दीपा मलिक नें। रियो पैरालंपिक में अब तक भारत की झोली में चार पदक आ चुके है जिसमें दो गोल्ड, एक सिल्वर और एक ब्रॉन्ज मेडल शामिल हैं।
दीपा मलिक ने महिलाओं की गोला फेंक एफ़-53 प्रतियोगिता में दूसरा स्थान प्राप्त कर भारत के लिए गौरवशाली इतिहास रचा है। अब दीपा मलिक इस पैरालंपिक में भारत को पदक दिलाने वाली देश की पहली महिला बन गई हैं एक आर्मी ऑफिसर की पत्नी और दो बच्चों की मां रहीं दीपा कमर के नीचे से लकवाग्रस्त हैं।
जानिए दीपा की कहानी उन्हीं की जुबानी-
हर खिलाड़ी की यही तम्मना होती है कि यदि उसमें योग्यता है तो वह अपने हुनर को एक बार ओलंपिक में जरूर दिखाए और देश के लिए कुछ कर सकें। यही सपना था दीपा मलिक का जिसने अपनी लगन मेहनत के सामने अपनी कमजोरी को कभी आगे आने नहीं दिया और कर दिखाया अपना अधूरा सपना साकार।
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दीपा का कमर के नीचे का पूरा भाग लकवाग्रस्त हैं। इनके शरीर की कमजोरी की शुरूआत 6 साल की उम्र से शुरू हुई थी। तब पहली बार इन्हें परेशानी होनी शुरू हुई। उस वक्त इनकी रीढ़ की हड्डी में ट्यूमर था। इस बीमारी का पता चलने के बाद इनका ऑपरेशन किया गया। जिसे ठीक होने में करीब 3 साल लग गए। जब बड़ी हुई को इसके बाद उनकी शादी हुई फिर एक सुंदर सी बच्ची का जन्म हुआ पर जब बच्ची डेढ़ साल की थी तब एक दुर्घटना में उसका भी बांया हिस्सा लकवा ग्रस्त हो गया। उस समय पूरी देखरेख की जिम्मेदारी दीपा पर आ गई। जब बच्ची ठीक होने लगी तब ट्यूमर का दूसरा अटैक दीपा पर पड़ गया। तब डॉक्टरों ने ऑपरेशन के दौरान उन्हें पहले से ही बता दिया था कि ट्यूमर के ऑपरेशन के बाद उनकी छाती का निचला हिस्सा काम करना बंद कर देगा। उस समय उनके पति कारगिल की लड़ाई पर गए हुए थे। आज के समय में उनके दोनों बच्चे बड़े हो चुके है। बड़ी बेटी भी उनके साथ पैरा स्पोर्ट्स के साथ जुड़ी हुई है। मां-बेटी दोनों ने एक साथ कई गेम्स खेलकर मेडल जीते हैं। उनकी बेटी मनोविज्ञान की छात्र है इसलिए वो अपनी पढ़ाई का पूरा उपयोग इनके साथ करती है। भले ही इनको इस बीमारी से तीन बड़े आपरेशन होने पर 183 टांके लगे हों, लेकिन इन्होंने इसके बाद भी हर आने वाली चुनौती से बाखूबी लड़कर जीत हासिल की है। लोग भले ही अपनी शारीरिक कमजोरी के चलते या फिर बढ़ती उम्र के चलते अपने सपनों को वहीं दफन कर देते हों पर इस प्रकार की धारणा को कभी मन में ना लाकर अपने हर सपनों को पूरा करना चाहिए, यही तो जिंदगी का उसूल है।