आज के समय में जब देश के लगभग हर हिस्से से सांप्रदायिक हिंसा की खबरें आ रही हैं। देश में धर्म और संप्रदाय की राजनीति हो रही है, ऐसे समय में भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने देश प्रेम और सर्वधर्म समभाव की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल पेश कर फिरकापरस्तों को मुंहतोड़ जवाब दिया है। हम आपको आज ऐसे ही एक शख्स से मिलाने जा रहे हैं जिसने सिर्फ शब्दों के जरिए ही नहीं बल्कि अपने जीवन में किए कार्यों के बल पर सर्वधर्म समभाव की मिसाल दुनिया के सामने रखी है।
ये शख्स हैं उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के हमाम दरवाजा इलाका निवासी मुहम्मद आबिद। आबिद ने ऐसी मिसाल पेश की है जो फिरकापरस्तों को मुंहतोड़ जवाब है। आबिद ने हिन्दुओं के लिए श्रद्धा का प्रतीक मानी जाने वाली “हनुमान चालीसा” का हिन्दी से उर्दू में अनुवाद किया है।
Image Source: http://static.hindi.news18.com/
क्यों आया आबिद को यह विचार-
आबिद का कहना है कि उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा महादेव की नगरी काशी से मिली। असल में वे एक दिन काशी के दशाश्वमेध घाट पर बैठे हुए थे। यहां उन्होंने कुछ विदेशी सैलानियों को दीवार पर अंकित हनुमान चालीसा को बड़ी ही उत्सुकता से देखते हुए पाया। आबिद ने सैलानियों को वहां के एक स्थानीय बच्चे को बुला कर हनुमान चालीसा के बारे में पूछते हुए देखा। हालांकि वह छोटा बच्चा उन्हें थोड़ा-बहुत ही बता पाया, मगर आबिद उन सैलानियों की आंखों की चमक और उत्सुकता देख कर दंग थे। वहीं से उन्हें हनुमान चालीसा के अनुवाद की प्रेरणा मिली। उन्होंने तत्काल हनुमान चालीसा खरीदी और उसे 90 लाइनों व 15 बंधनों में अनुवाद कर डाला। यही नहीं वे अपने समुदाय के लोगों को भी इसे पढ़ने हेतु प्रेरित कर रहे हैं।
आबिद का ऐसा मानना है कि हिन्दुओं को कुरान और मुस्लिमों को गीता पढ़ने में कई बार भाषा आड़े आती है। उन्होंने कहा कि वे रामायण सहित अन्य हिन्दू ग्रंथों का भी उर्दू अनुवाद करने की कोशिश करेंगे।
Image Source: http://i9.dainikbhaskar.com/
देखा जाए तो किसी भी अन्य धर्मग्रन्थ को पढ़ने के लिए सबसे अधिक परेशानी सिर्फ भाषा की आती है। आप किसी भी धर्मग्रन्थ को सिर्फ तब आसानी से पढ़ सकते हो जब वह आपकी भाषा में मिलता है। हालांकि ऐसी बहुत सी किताबें हैं जो आपको आपकी भाषा में नहीं मिल पाती हैं। जिसके कारण आप उन किताबों में लिखी मानवीय शिक्षा को पढ़ नहीं पाते।
यहां यह भी बता दें कि 1657 में दरशिकोह ने उपनिषदों का संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद “सिर ए-अकबर” या सिर अल-असरार” के नाम से किया था। वहीं, मुहम्मद आबिद की यह छोटी सी पहल सर्वधर्म समभाव का सही सन्देश देती है।