जानकारी के लिए सबसे पहले आप इस बात को जान लीजिए की ताज महल की नीलामी अंग्रेजों द्वारा दो बार सन 1831 में की गई थी, इन नीलामियों शर्त यह थी की ताजमहल के सुन्दर पत्थरों को निकाल कर अंग्रेजी सरकार के हवाले खरीदने वाले को करना होगा। उस दौरान सेठ लख्मीचंद, जो की मथुरा जिले से थे ने सबसे बड़ी बोली लगाई थी और ताजमहल को खरीद लिया था इसलिए ही ताजमहल अपने देश में आज भी शान से खड़ा है अन्यथा किस दुर्दशा में होता उसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। बंगाल के तत्कालीन गवर्नर लार्ड बेंटिक की नजर में ताज महल को लेकर कई प्रकार के विचार लगतार चल रहें थे, अंततः उन्होंने सोचा की क्यों न ताज महल की नीलामी करा दी जाए और इसके सुंदर पत्थरो को निकलवा लिया जाए, बाद में इन पत्थरों को बेच कर रानी विक्टोरिया का खजाना भरा जाए। इस विचार को लेकर उस गवर्नर ने अपनी योजना बनाई और नीलामी की घोषणा कर दी।
नीलामी में मथुरा के सेठ लख्मीचंद ने सबसे ज्यादा बोली लगा कर ताज महल को सशर्त 1.5 लाख रूपए में खरीद लिया पर जब सेठ जी ताजमहल पर अपना कब्जा लेने के लिए पहुंचे तो जनता में उनके लिए बिरोध के स्वर शुरू हो गए, हिन्दू और मुस्लिम एक हो गए थे। इन लोगों का कहना था की ताजमहल को बनाने वाले लोगों के लिए शहंशाह शाहजहां ने कई कटरो का निर्माण किया था, हम लोग अपने ताजमहल के पत्थरों को अंग्रजो को नहीं देने देंगे। सेठ जी ने लोगों की इन बातो को ध्यान से सुना और इन सभी बातो पर विचार किया तथा अंत में लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए उन्होंने ताजमहल को खरीदने का विचार त्याग दिया था।
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इस घटना से लार्ड बेंटिक बहुत ताव खा गया उसने फिर कोलकाता के एक अंग्रेजी अखबार में ताज महल को बेचे का विज्ञापन छपवाया, यह घटना है 26 जुलाई 1931 की, यह नीलामी लगातार दो दिन तक चली और इस नीलामी में राजस्थान के शाही परिवार और मथुरा के सेठ ने भी भाग लिया, इस नीलामी के दूसरे दिन अंग्रजो ने भी भाग लिया परंतु फिर भी यह नीलामी मथुरा के सेठ लख्मीचंद के नाम ही रही। उन्होंने इस बार ताजमहल को 7 लाख रूपए में खरीद लिया था। इसके बाद परेशानी फिर से वही सामने आई, ताजमहल के पत्थरो को जहाज में डालकर लंदन ले जाने में खर्च बहुत ज्यादा आ रहा था और लोगों का बिरोध भी लगातार तेज होता जा रहा था। कहा जाता है की अंग्रजो की आर्मी के एक अफसर ने ब्रिटिश संसद के एक सदस्य को गुप्त रूप से लार्ड बेंटिक की सारी कहानी बता दी थी, जिसके बाद में ब्रिटिश संसद में यह मामला उठाया गया और ताजमहल को ख़त्म करने का विचार गवर्नर लार्ड बेंटिक को छोड़ना पड़ा था।