हज़रत इमाम हुसैन आखिर क्यों आना चाहते थे हिन्दुस्तान, जानिये उनकी इस इच्छा के बारे में

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हज़रत इमाम हुसैन के बारे में भला कौन नहीं जानता। मगर बहुत कम लोग ही इस बात को जानते हैं कि अपने आखिरी समय के दौरान वह भारत आना चाहते थे। आज हम आपको उनकी इस आखरी इच्छा के बारे में बताने जा रहें हैं पर उससे पहले आपको हज़रत इमाम हुसैन के बारे में संक्षिप्त में जानकारी दे दें।

हज़रत इमाम हुसैनImage Source: 

आखिर कौन थे हज़रत इमाम हुसैन –

हज़रत इमाम हुसैन, इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब के नाती थे। ये “अली अ०” के दूसरे बेटे थे और इनकी मां का नाम “फ़ातिमा जाहरा” था। इमाम का जन्म 3 शाबान, सन 4 हिजरी, 8 जनवरी 626 ईस्वी में सऊदी के पवित्र शहर मदीना में हुआ था। हज़रत मुहम्मद साहब ने ही इमाम हुसैन को “हुसैन” नाम दिया था। कहा जाता हैं कि इससे पहले किसी का नाम “हुसैन” नहीं रखा गया था।

अपने बचपन के 6 वर्ष इमाम ने मुहम्मद साहब के साथ ही बिताये थे और इस समय में हज़रत मुहम्मद साहब ने उनको सदाचार की शिक्षा दी। मुहम्मद साहब के बाद में इमाम हुसैन 30 वर्ष तक अपने पिता “इमाम अली अलैहिस्सलाम” के साथ रहें और उनकी शहादत के बाद वह अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहें।

इस समय “मुआविया” नामक शहंशाह का राज था। 60 हिजरी में शहंशाह का इंतकाल होने के बाद उनका बेटा यज़ीद गद्दी का अधिकारी बना और उसने इमाम हुसैन को अपनी अधीनता स्वीकार करने को कहा पर इमाम ने इस बात से मना कर दिया। इसके बाद ईराक के कर्बला शहर में यज़ीद से लड़ते हुए इस्लाम की रक्षा के लिए 10 मुहर्रम 61 हिजरी को इमाम हुसैन ने शाहदत दे दी।

हज़रत इमाम हुसैनImage Source: 

आखिर क्यों भारत आना चाहते थे इमाम हुसैन –

हज़रत इमाम हुसैन का एक नौहा मिलता हैं जो इस बात के साफ संकेत देता हैं कि इमाम हुसैन भारत आना चाहते थे। यह नोहा कुछ इस प्रकार हैं।

“कहा हुसैन ने हिन्दोस्ता जाने दे, न कर सितम मुझे दुनिया नई बसाने दे, क्योंकि वहां के लोग… हर एक दिल को मिलाने का काम करते हैं…”

इस नौहे में भारत आने के लिए इमाम की चाह को साफ़ देखा जा सकता हैं। इस्लाम धर्म के शिया सम्प्रदाय के लोग इस बारे में कहते हैं कि “हिंदुस्तान के लोग अमन पसंद हैं और इमाम हुसैन को यहां के लोगों पर भरोसा था कि यदि वह यहां आ गए तो उनको सब लोगों से प्यार मिलेगा। मगर यज़ीद से हुई उनकी कर्बला की जंग ने उनकी इस आखरी इच्छा को पूरा नहीं होने दिया।

इमाम हुसैन किसी भी प्रकार की जंग के पक्ष में नहीं थे इसलिए उन्होंने यज़ीद से काफी समय तक दूरी बनाई रखी। वह 6 माह का सफर तय कर ईराक पहुंचे और वहां जमीन खरीद कर डेरे गाड़ दिए लेकिन आखिर में न चाहते हुए भी उन्हें यज़ीद से जंग करनी पड़ी जिसमे वह शहादत को कुर्बान हो गए। इमाम की शाहदत ने दुनिया के सभी लोगों को यह पैगाम दिया कि कभी भी जुल्म का साथ मत दें। इसी कारण वह आज भी लोगों के दिलों में बसते हैं।

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किसी भी लेखक का संसार उसके विचार होते है, जिन्हे वो कागज़ पर कलम के माध्यम से प्रगट करता है। मुझे पढ़ना ही मुझे जानना है। श्री= [प्रेम,शांति, ऐश्वर्यता]

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