रामकृष्ण परमहंस को कौन नहीं जानता, वो एक ऐसे सिद्धयोगी पुरूष थे, जिन्होनें अपने आध्यात्मिक साधना से मां काली की भक्ति को पा लिया था और इसी कारण उन्हें रोज मां काली के दर्शन आसानी से हो जाते थे। पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव कामारपुकुर में जन्मे रामकृष्ण परमहंस मां काली के सच्चे भक्त थे।उन्होंने कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, ना ही वह कभी स्कूल गए थे, ना तो उन्हें संस्कृत आती थी और ना ही अंग्रेजी जैसी भाषाओं का ज्ञान था। ना ही वो किसी सभा में भाषण देते थे, लेकिन वो सिर्फ मां काली को जानते थे, सिर्फ इसी वजह से उनका साक्षात्कार मां काली से हर रोज हो जाता था।
रामकृष्ण क्यों कहते थे अपनी पत्नी को मां
बताया जाता है कि आध्यात्मिक साधना में पूरी तरह से लीन हो जाने के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन एक समय इतना बिगड़ गया था कि वे मां काली के दूर हो जानें पर रोना शुरू कर देते थे और काफी देर तक एक छोटे से बच्चे के समान रोते ही रहते थे। तब उनके परिवार वालों ने फैसला किया कि वे जल्द ही उनका विवाह कर देंगे। जिससे गृहस्थ जीवन में जानें के बाद वो ठीक हो सकें।
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उनका विवाह भी करा दिया गया, लेकिन रामकृष्ण की भक्ति-साधना में कोई परिवर्तन नहीं आया। एक बार उनकी पत्नी शारदा के सवाल के पूछा कि वो उन्हें किस रूप में देखते है तो रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया कि उसी मां काली के रूप में जो दक्षिणेश्वर मंदिर में विराजमान है। वे सिर्फ अपनी पत्नि को ही नहीं बल्कि समस्त महिलाओं व बच्चियों को मां काली के रूप में ही देखते थे।
सरल और विनम्र स्वभाव के थे परमहंस
कोलकाता तब कलकत्ता के नाम से जाना जाता था। जब यहां का इलाका बड़े-बड़े व्यापारियों से भरा रहता था। रास्तों पर बैलगाड़ी व हाथ गाड़ियों के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान जाने की व्यवस्थाएं थी। इन्हीं इमारतों के बीच स्थित भगवान कृष्ण का मंदिर अपनी कई खासियत के लिए जाना जाता है। एक बार इसी मंदिर में 20 अक्टूबर साल 1884 के समय अन्नकूट उत्सव मनाया गया। उस दिन मयूरमुकुटधारी कृष्ण के पूजन के लिए शहर के सबसे प्रसिद्ध साधु को वहां के मारवाड़ी भक्तों ने आमंत्रित किया। वह साधु सिद्धि के जिस स्तर तक पहुंच चुका था, उतना ही ज्यादा भावुक और विनम्र भी था। पूजन के लिए जब वो 12, मलिक स्ट्रीट स्थान पर दोपहर 3 बजे पहुंचे तो उन्होंने वहां के लोगों से पूजन करने के लिए कहा-तभी भक्तो नें उन्हें प्रणाम करके कहा कि हम सभी के लिए तो आप ही भगवान है, इस पर रामकृष्ण ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा, मैं तो सिर्फ आप लोगों का दास हूं। इसके बाद उन्होंने वहां पर रखी मूर्ति की पूजा करके सबको प्रसाद दिया और वहां से और विदा ली।
अब कहां है मंदिर?
अब इस घटना को बीते बहुत समय हो गया। लोगों के साथ वहां का नक्शा भी पूरी तरह से बदल चुका है। यहां तक कि कलकत्ता भी कोलकाता में बदल चुका है। लेकिन आज भी वो मंदिर के साथ वो मूर्ति उसी जगह पर स्थित है जहां पर रामकृष्ण ने इनका पूजन किया था। इस जगह का नाम है काली गोदाम।