अपने देश में बहुत से ऐसे मंदिर हैं जो अपनी वास्तुकला तथा दिव्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। आज हम आपको एक ऐसे ही दिव्य मंदिर के बारे में बता रहें हैं। देखा जाए तो हर प्रकार के धर्मस्थल के साथ कुछ न कुछ विशेष प्रथाएं जुडी ही होती है। इन प्रथाओं को सामान्यतः परम्पराएं कहा जाता है। ऐसे बहुत से तीर्थस्थल हैं जहां ये परम्पराएं काफी प्राचीन समय से चल रहीं हैं। ये सभी परम्पराएं सम्बंधित धार्मिक डठल की शक्ति को प्रसन्न करने के लिए की जाती हैं। कुछ लोग साधारण पूजा उपासना आदि कर उस शक्ति को प्रसन्न करने का उपक्रम करते देखे जाते हैं तो कई स्थानों पर पशुबलि का कार्य भी किया जाता है। हालांकि बलि प्रथा का किसी धार्मिक ग्रंथ में उल्लेख नहीं है पर फिर भी लोग लम्बे समय से होते आ रहें इस कार्य को प्रथा का रूप देकर आज भी करते नजर आते हैं। आज जिस दिव्य मंदिर के बारे में हम यहां जानकारी दे रहें हैं वहां भी पड़े स्तर पर पशुबलि कर्म किया जाता है। इस मंदिर का नाम “भीमाकली मंदिर” है।
शक्तिपीठ है यह मंदिर –
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भीमाकली मंदिर देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह हिमाचल प्रदेश के अंतर्गत सराहन नामक स्थान पर है। मान्यता है की देवी सती का बायां कान इस स्थान पर ही गिरा था इसलिए ही यह स्थान शक्तिपीठ के रूप में स्थापित है। लोगों का मानना है की यह अत्यंत प्राचीन स्थान है पर इस स्थान पर मंदिर को करीब 800 वर्ष पहले निर्मित कराया गया था। उसके बाद में 1943 में मंदिर के परिसर में एक नवीन मंदिर को निर्मित कराया गया था। इस मंदिर की खासियत यह भी है की यहां पर भक्त लोग एक ही देवी के 2 अलग अलग रूपों में दर्शन करते हैं। एक रूप में देवी मां कन्या के रूप में हैं तो दूसरे रूप में वे सुहागिन के रूप में दर्शन देती हैं। भीमाकली मंदिर के पट सिर्फ सुवह तथा शाम को ही खुलते हैं इसलिए ही इन दो समय ही देवी मां के दर्शन मिलते हैं।
गोल्डन टॉवर तथा चांदी का दरवाजा –
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मंदिर देखने में आम हिंदू मंदिर वास्तुकला के हिसाब से नहीं बना है लेकिन देखने में यह बहुत मनोहारी लगता है। आपको बता दें की यह मंदिर तिब्बती तथा बौद्ध शैली की मिलीजुली वास्तुकला का अद्भुद नमूना है। मंदिर के अंदर में पगोड़ा टेम्पल, गोल्डन टॉवर स्थित है। इस मंदिर का मुख्य गर्भद्वार भी चांदी से निर्मित किया हुआ है तथा यह नक्काशीदार तथा बेहद सुंदर है। इस मंदिर के पास में दशहरे के दिन पशुबलि कर्म किया जाता है हालांकि शास्त्र तथा धर्म ग्रंथ इस कार्य की अनुमति नहीं देते पर लोगों की मान्यता के अनुसार यह कार्य प्रथा के रूप में प्रतिवर्ष किया जाता है।