हमारे भारत में सिनेमा के चलचित्रों को सपना तब बुना गया जब लोग इस कलाकृति से कोसों दूर थे। तब सिनेमा जगत के जनक धुंडिराज गोविन्द फाल्के ने इस इतिहास को रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दादा साहब फाल्के हमारे देश के वो महान पुरुष थे जिन्होंने भारतीय फिल्म उद्योग का निर्माण कर ‘पितामह’ कहलाने की पदवी हासिल की। वे रंगमंच के ऐसे अनुभवी शख्सियत थे जिन्होंने सिनेमा जगत के मंच पर एक कला का अविष्कार किया। जो आज बदलते समय के साथ-साथ उड़ान भर कर देश विदेशों में भी प्रख्यात हो चुकी है। भारत की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के जनक माने जाने वाले दादा साहब फाल्के का जन्म महाराष्ट्र में नासिक से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर त्रयम्बकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 को हुआ था।
दादा साहब फाल्के में बचपन से ही कला के प्रति रुझान काफी गहरा था। जिस समय हम हर तकनीकी चीजों के लिये दूसरे देश पर निर्भर थे, उस समय दादा साहब फाल्के अपनी कला की बदौलत भारत की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्र लेकर आये। वह दिन हमारे इतिहास के लिये काफी यादगार साबित हुआ था।
दादा साहब फाल्के ने मूर्तिशिल्प, इंजीनियरिंग, ड्रॉइंग, पेंटिंग और फोटोग्राफी का अध्ययन कर गहरा ज्ञान प्रप्त किया। इसके बाद उन्होंने गोधरा में एक फोटोग्राफर के रूप में काम कर अपने करियर की शुरूआत की थी।
फिल्म के प्रति उनका रुझान तब बढ़ा जब उन्होंने प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ काम करने के बाद जर्मन के मशहूर जादूगर के साथ मेकअप मैन बनकर काम किया।
इसके बाद वर्ष 1909 में उन्हें जर्मनी जाने का मौका मिला और वहां पर रहकर उन्हें सिनेमाई कला से जुड़ी मशीनों को जानने का मौका मिला। इसके बाद 1910 में उन्होंने ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म देखी जो उनके जीवन में एक प्रेरणा बनकर उतरी। इसी से उन्हें फिल्म निर्माण की प्रेरणा मिली।
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इसी तरह की कई फिल्में देखने के बाद उन्होंने अपने एक दोस्त की सहायता से इंग्लैंड से फिल्म से सबंधित जरूरी उपकरण खरीदे और 1912 में उन्होंने भारतीय सिनेमा जगत को पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाकर सबसे बड़ा उपहार दे डाला। इस फिल्म को बनाने में लागत 15 हजार रुपये आयी, जो उस वक्त की सबसे महंगी फिल्म थी। इसके बाद उन्होंने दूसरा बेहतरीन कौशल अपने विज्ञापन के द्वारा कर दिखाया।
पहले जब लोग उनकी फिल्म को देखने के लिए पैसा खर्च नहीं करना चाहते थे तो लोगों का ध्यान अपनी फिल्म की ओर आकर्षित करने लिये उन्होंने बेहद नये तरीके का विज्ञापन रच डाला। इसे कुछ इस तरह का स्लोगन दिया ‘सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र’।
इसके बाद उनका सफर यूं ही बढ़ता रहा। उन्होंने 100 से ज्यादा फिल्मों का निर्माण कर एक से बढ़कर एक फिल्में दी जिनमें ‘राजा हरिश्चंद्र’ के अलावा सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्रीकृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), कंस वध (1920), शकुंतला (1920), संत तुकाराम (1921), भक्त गोरा (1923) सहित 100 से ज्यादा फिल्में बनाईं।
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सन् 1932 में रिलीज हुई फिल्म ‘सेतुबंधन’ उनकी आखिरी मूक फिल्म थी। इसके बाद वो पूरी तरह से फिल्मी दुनिया से बाहर हो गये।
दादा साहब फाल्के की सौवीं जयंती पर सन् 1969 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना हुई। आपको बता दें कि यह भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार है और यह फिल्मों में आजीवन योगदान के लिए केंद्र सरकार द्वारा दिया जाता है। पहली बार यह पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया।
16 फरवरी 1944 को 73 वर्ष की आयु में दादा साहब फाल्के अपनी विरासत छोड़ दुनिया को अलविदा कह गये। आज भले ही दादा साहब फाल्के हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी यादें हमेशा के लिये अमर हो चुकी हैं।