भारत के मशहूर स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर का जन्म आज ही के दिन हुआ था पूरा देश आज यानी 28 मई को भारतमाता के इस सपूत को याद कर रहा है। वीर सावरकर का पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। वीर सावरकर देश के पहले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने फॉरेन के सामानों को जला कर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान किया था। उनका बचपन काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा था, 9 वर्ष की उम्र में उनकी मां का निधन हो गया था तब उनके बड़े भाई ने विनायक दामोदर सावरकर की परवरिश की। बचपन से ही विनायक दामोदर बागी प्रवृत्ति के थे. उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए पुणे का रुख किया और वहीं अभिनव भारत सोसाइटी का गठन किया लेकिन बाद में बाल गंगाधर तिलक के वराज दल में शामिल हो गए।
उनके प्रखर स्वाधीनता आंदोलन की गतिविधि का परिणाम ये हुआ कि ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी डिग्री जप्त कर ली लेकिन इससे उनके विचारों में शिथिलता की बजाय उनका मनोबल और बढ़ा, वो जून 1906 में बैरिस्टर की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वहां भी वो शांत नहीं बैठे उन्होंने हथियारों से लैस एक संगठन का गठन किया, जिसका नाम आजाद भारत सोसाइटी पड़ा। वीर सावरकर ने इस दौरान तलवार नामक एक पुस्तक लिखी जिसकी भनक अंग्रेजों को लग गई, इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में उस पुस्तक को हॉलैंड में प्रकाशित किया गया, जिसमें 1857 की सैनिक क्रांति को स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया गया, इस पुस्तक से दुनिया के कई देशों में भारत की आज़ादी का शंखनाद हुआ। सन 1909 में सावरकर के सहयोगी मदनलाल धींगरा ने वायसराय, लार्ड कर्जन के हत्या का प्रयास किया लेकिन वह असफल रहे, लेकिन बाद में सर विएली को गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना के बाद उन्हे 40 साल की सजा सुना कर काला पानी भेज दिया गया लेकिन अंडमान के सेलुलर जेल से लगभग 14 साल बाद रिहा कर दिया गया। वहां भी वो शांत नहीं रहे उन्होंने वहां भी कई कविताएं लिखीं। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने हिंदू महासभा नाम की पार्टी बना ली। वर्ष 1937 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और आगे जाकर ‘भारत छोड़ो आंदोलनका’ का हिस्सा भी बने। सावरकर ने आज़ादी के वक्त देश के विभाजन का पुरज़ोर विरोध किया, नाथूराम गोडसे ने उसी दौरान महात्मा गांधी की हत्या कर दी, जिसमें सावरकर का भी नाम आया। वीर सावरकर को दोबारा फिर जेल जाना पड़ा लेकिन साक्ष्यों की कमी से उन्हें जेल से छोड़ना पड़ा। सावरकर ही एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जिनको दो बार आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी थी। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने आजीवन व्रत रखने का निर्णय लिया था। वहीं 26 फरवरी 1966 मुम्बई भारतमाता के लाल ने अंतिम सांसे ली।