“इब्राहिम न एक यहूदी था और न ही एक ईसाई लेकिन वह एक सच्चा विश्वासी था और वह सिर्फ अल्लाह के सामने झुका और उसने अल्लाह के साथ किसी को शरीख नहीं किया।”
(सूरा अल इमरान, 67)
مَا كَانَ إِبْرَاهِيمُ يَهُودِيًّا وَلَا نَصْرَانِيًّا وَلَٰكِن كَانَ حَنِيفًا مُّسْلِمًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ
हजरत इब्राहिम अपने में एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म में एक प्रकाश स्तंभ के रूप में खड़े है। इन तीनो मजहबों की दीनी किताबों में आप हजरत इब्राहिम को कहीं न कहीं हमेशा पाएंगे। हिब्रू बाईबल में हजरत इब्राहिम को “हजरत इब्राहिम इब्न अजार” कहा है जिसका अर्थ है “नबियों के पिता”, वहीं दूसरी और इस्लाम में हजरत इब्राहिम को रसूल कहा है और इनको नबी माना है। अल्लाह में हजरत इब्राहिम की ईमान अटूट था यदि सही से देखा जाए तो हजरत इब्राहिम अपने जीवन में एक ऐसे व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं जो की सार्वभौमिक होने के साथ साथ आत्मसमर्पण में भी बहुत ही मौलिक (बुनयादी) है। इस्लाम की मान्यता के अनुसार “काबा” का निर्माण हजरत इब्राहिम ने किया था और वर्तमान में भी ” ईद अल अजहा” का त्यौहार भी हजरत इब्राहिम के गॉड (अल्लाह) के याद में ही मनाया जाता है, जो हमे भी ख़ुदा के प्रति अपनी श्रद्धा और विश्वास को हजरत इब्राहिम की तरह ही मजबूत करने का सन्देश देता है।
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हजरत इब्राहिम का जन्म 2510 BC को इराक के बेबीलॉन शहर में हुआ। हजरत इब्राहिम के परिवार में इनकी तीन पत्निया थी, जिनके नाम सारा, हाजरा और खितौरा हैं और हजरत इब्राहिम के दो बच्चे थे जिनके नाम “इस्माईल और इसहाक” हैं। हजरत इब्राहिम के जीवन में उनकी अल्लाह के प्रति श्रद्धा और विश्वास ही उनको जनसामान्य से कहीं ऊँचा बनाता है।
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आज हम आपको हजरत इब्राहिम के जीवन की दो ऐसी घटनाओं की जानकारी दे रहें हैं, जिनसे कोई भी यह सबक सहज ही ले सकता है की अल्लाह के प्रति किस प्रकार का विश्वास और किस प्रकार का समर्पण होना चाहिए, हजरत इब्राहिम के जीवन की यह दो घटनाएं प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस बात की कसौटी हैं की उसका अल्लाह के प्रति किस प्रकार का समर्पण और किस प्रकार का विश्वास है। आइये जानते हैं हजरत इब्राहिम के जीवन की उन दो घटनाओं के बारे में, जो हमारे जीवन का उत्थान करने की क़ाबलियत रखती हैं।
1- आग का समंदर और हजरत इब्राहिम –
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हजरत इब्राहिम ने लोगों को बुतपरस्ती से निकाल कर सही राह पर लाने के लिए एक अनोखा रास्ता चुना, उन्होंने एक रात अपने शहर के सबसे बड़े उपासना घर में जाकर वहां रखी सभी मुर्तिया तोड़ डाली, सुबह जब लोगों को पता लगा तो उन्होंने हजरत इब्राहिम से भी पूछताछ की, इस पर हजरत इब्राहिम ने उनसे कहा की “तुम लोग मुझे क्यों पूछते हो उन मूर्तियों से ही पूछो जिसको तुम दिन रात अपनी परेशानियां सुनाते हो, यदि वह तुम्हारी परेशानियां सुनती हैं तो आपके ये प्रश्न क्यों न सुनकर बता सकेंगी की इन छोटी मूर्तियों को किसने तोडा है, मेरे ख्याल से तो इनको उस मुख्य और बड़ी मूर्ति ने ही रात में तोडा है क्युकी वही महफूज़ है।”
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यह जबाब सुनकर मंदिर के लोगों का गुस्सा हजरत इब्राहिम पर और भी ज्यादा बढ़ गया और उन्होंने इसकी शिकायत उस समय के राजा नमरूद से की। नमरूद ने इस घटना में हजरत इब्राहिम को गुनाहगार ठहरा कर उन्हें जिन्दा ही आग में फैंक देने की सजा सुना दी। नमरूद बहुत ही क्रूर शासक (ज़ालिम हुक्मरान) था, उसके द्वारा सुनाई यह सजा आग की तरह सारे शहर में फ़ैल गई। हजरत इब्राहिम को आग में फैंकने के लिए सबसे पहले एक बड़ा गढ्ढा खोदा गया और लकड़ियों का एक बड़ा ढेर जमा किया गया। समय आने पर हजरत इब्राहिम को लाया गया और लकड़ियों में आग लगा दी गई। आग की लपटे आकाश को छू रही थी, वह इतनी ऊँची थी की आकाश में उड़ते पक्षी भी उसमें जल कर गिर रहें थे।
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हजरत इब्राहिम के हाथ-पैर जंजीरों में जकड़े हुए थे और उस अंतिम समय में हजरत इब्राहिम को उस आग में फैंकने के लिए तैयार की गई एक बड़ी गुलेल के पास ले जाया गया और उसमें हजरत इब्राहिम को डाल दिया अब उस भीषण और धधकती हुई आग में हजरत इब्राहिम को फैंक दिया जाना था, ठीक उस समय ही हजरत इब्राहिम के पास एक फरिश्ता आया, जिनका नाम जिब्राईल था और उन्होंने हजरत इब्राहिम से कहा की ” इब्राहिम , जो कुछ भी इस समय तुम्हारी इच्छा है, वो कहो” , हजरत इब्राहिम यदि चाहते तो उस समय अपने आप को आग से दूर ले जाने या आग से बचाने को कह सकते थे पर हजरत इब्राहिम ने कहा “अल्लाह मेरे लिए पर्याप्त (काफी) है, वह मेरे मामलों का सबसे अच्छा निपटारा करने वाला है।” गुलेल को जारी कर दिया गया और हजरत इब्राहिम को आग के बीच में फेंक दिया गया और उस समय ही अल्लाह की और से हुक्म जारी हुआ “आग ठंडी हो जा और हजरत इब्राहिम के लिए सुरक्षा कवच बन जा”, और एक चमत्कार हुआ हजरत इब्राहिम उस जलती हुई आग से सुरक्षित बाहर आये, उनके चेहरे पर उस समय शांति और सुरक्षा के भाव थे। लोगों ने जब (हजरत इब्राहिम) को देखा तो देखने वाली भीड़ के लोगो ने हजरत इब्राहिम को देख बड़ा आश्चर्य किया और कहा की “हजरत इब्राहिम के खुदा ने इब्राहिम को बचा लिया ” ।
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यहां हजरत इब्राहिम के उस विश्वास को देखना चाहिए की मौत के अंतिम पल (लम्हा) में भी हजरत इब्राहिम न तो अपने यकीन को ज़रा भी कम करते हैं और न ही अपने विश्वास को। वे उस क्षण में भी कहते हैं “अल्लाह मेरे लिए पर्याप्त है” । ये जो हजरत इब्राहिम का विश्वास है, इससे ही वह हमें यह सिखाते हैं की अगर हम इबादत करते है तो हमारा विश्वास किस कदर ऊंचा और पक्का होना चाहिए ताकि हम उसकी मेहर को अपने जीवन में महसूस कर सकें।