आज हम आपको बता रहें हैं अपने ही देश के एक ऐसे महोत्सव के बारे में जिसमें आग से लेकर अपने ही शरीर में छेद कर खुद को कष्ट देने की यात्रा होती है, असल में यह एक धार्मिक यात्रा होती है और इसमें इस प्रकार के कार्य कर्मकांड के रूप में किए जाते हैं। आइये जानते हैं इस यात्रा और इस महोत्सव के बारे में विस्तृत रूप से।
आड़ी महीने में आड़ी महोत्सव नाम का त्यौहार होता है। जिसमें एक स्थान से अन्य स्थान तक यात्रा निकाली जाती है। इस यात्रा में बहुत ही खतरनाक कर्मकांड होते हैं जिनको सभी लोगों को पूरा करना ही होता है, सबसे पहले हम आपको बताते हैं इस महोत्सव के बारे में। असल में आड़ी महीना तमिल कैलेंडर का एक प्रसिद्ध माना जाता है जो की हमारे कैलेंडर के हिसाब से 15 जुलाई से 15 अगस्त के बीच में आता है। इस समय पर तमिलनाडु के मंदिरों में विशेष पूजा की जाती है और कई जगहों पर मेला भी लगता है। इस महीने में सीयातहम्मन मंदिर में भी महोत्सव होता है। जिसको “आड़ी महोत्सव” कहा जाता है, यह मंदिर तमिलनाडु के बाहरी क्षेत्र में है और काफी प्राचीन मंदिर है, यह एक काली मंदिर है।
इस प्रकार की होती है शरीर छेदन की रस्म –
आड़ी महोत्सव के तीसरे सप्ताह में शरीर छेदन की रस्म अदा की जाती है, जो बहुत कष्टकारक होती है, इस रस्म में लोग अपने कान, जीभ, नाक या सारे शरीर का छेदन कराने के बाद में सुन्दर विनायक मंदिर से यात्रा आरंभ करते हैं, जिसका समापन सीयातहम्मन मंदिर में होता है। जो भी लोग इस महोत्सव में भाग लेना चाहते हैं उनको सबसे पहले 48 दिन तक व्रत रखना होता है तथा अपने गले में तुलसी की माला को धारण करना होता है ताकि शरीर शुद्धि हो सकें। इसके बाद में सभी श्रद्धालु लोग विनायक मंदिर पहुंचते हैं और वहां का पुजारी स्वयं इस छेदन क्रिया को आरम्भ करता है, अधिकतर व्यक्ति अपने दोनों गालों में आर-पार छेद कराते हैं। कुछ लोग अपने शरीर में कई अलग-अलग जगह पर छेद कराते हैं और उन छे्दों में हुक लगाकर पानी की बोतल या नींबू आदि को टांग देते हैं इसके अलावा कुछ लोग अपनी जीभ का भी छेदन कराते हैं परंतु सबसे खतरनाक छेदन “पिंजरा छेदन” होता है, इस छेदन में श्रद्धालु के शरीर में इतने छेद किये जाते है कि देखने वाले को लगता है श्रद्धालु किसी पिंजरे में बंद है।
इसी प्रकार से “हिंडोला छेदन” भी बहुत खतरनाक होता है, इसमें श्रद्धालु के शरीर को हुकों से छेद करके उसको हिंडोले पर बांध दिया जाता है तथा उसको घुमा-घुमा कर के मंदिर तक पहुंचाया जाता है।
इसके बाद में एक अंतिम कर्मकांड के तहत ” आग पर चलने” की रस्म भी होती है।
इस रस्म में लोग आग पर नंगे पैरों से चलते हैं और फिर इस यात्रा का समापन होता है। मंदिर के इस महोत्सव और यात्रा को काफी पुरातन माना जाता है, स्थानीय लोग इस यात्रा को एक तप यानि तपश्चर्या के रूप में मानते हैं फिर भी एक मोटे तौर पर देखा जाए तो चेन्नई एक मेट्रो सिटी है और वहां के लोगों का इस प्रकार के कार्यो पर भरोसा करना कहीं न कहीं चकित ही करता है।