आपने वह कहावत तो जरूर सुनी ही होगी कि “दीवारों के भी कान होते हैं” पर क्या आपने कभी सोचा है कि यह कहावत आखिर कैसे बन गई। हर किसी बात के पीछे कोई लॉजिक जरूर होता है और कहावतों के पीछे तो जरूर होता ही है, कोई भी कहावत यूं ही नहीं बन जाती है। चलिए आज हम आपको बता रहें कि इस कहावत के पीछे आखिर क्या कहानी है। असल में इस कहावत का राज छिपा है प्रसिद्ध आसिफी इमामबाड़े में, जिसको बड़ा इमामबाड़ा भी कहा जाता है। इसको 1784 में अवध के नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। यह इमारत लखनऊ में स्थित है और यह भूलभुलैया नाम से भी फेमस है। असल में यहां के एक जैसे रस्ते, यहां की नक्काशी, यहां की कलाकारी और यहां से कई शहरों के लिए निकली सुरंगे इस ईमारत को खास बनाती हैं।
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आपको यह जानकार भी बहुत ज्यादा हैरानी होगी कि यह इतनी बड़ी ईमारत चूने, पत्थर, लोहे या सरिया आदि से नहीं बनाई गई है बल्कि इसको बनाने में लाल मिट्टी, शहद, गन्ने का रस, सिंघाड़े का आटा, चने तथा उड़द की दाल और लखौरी ईंटों जैसी कई और चीज़ो का उपयोग हुआ है। इस ईमारत की एक खासियत यह भी है कि यदि आप इस ईमारत के किसी भी स्थान पर फुसफुसा कर भी कुछ बोलते हैं तो आपकी आवाज को इस ईमारत की सभी दीवारों से कान लगा कर सुना जा सकता है। यही शायद वजह रही कि “दीवारों के भी कान होते हैं” नामक कहावत का प्रचलन हो गया। ऐसा कहा जाता है कि आसफउद्दौला ने यह काम अपनी फौज में घुसे गुप्तचरों को पकड़वाने के लिए किया था।