चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी…..
19 नवंबर को ज़न्मी वो बहादुर महिला जिसने अकेले ही लड़कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे, उसका इतिहास आज भी हर बच्चों की जुबां पर सुनने को मिलता है। वह हैं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई…. इस बहादुर महिला का जन्म 19 नवंबर 1835 को वाराणसी के अस्सी घाट में मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई के घर हुआ था। इनका नाम मणिकर्णिका रखा गया था, लेकिन प्यार से इन्हें मनु पुकारा जाता था।
बचपन से ही मनु चंचल स्वभाव की होने के कारण सभी का मन मोह लेती थीं। बाजीराव अपनी लाडली मनु को प्यार से छबीला कह कहकर पुकारते थे। मनु ने बचपन से ही घुड़सवारी, शस्त्रविद्या और मल्लविद्या सीखी हुई थी।
Image Source: http://4.bp.blogspot.com/
रानी लक्ष्मी बाई की शादी महज 7 वर्ष की उम्र में सन् 1842 को गंगाधार राव से करा दी गई। उनकी शादी होते ही झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई और इसके बाद वह मनु से बन गर्इं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई…..।
लक्ष्मीबाई कई तरह के अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण थीं और हमेशा मर्दाना पोशाक पहनती थीं। उन्होंने अपने नेतृत्व में महिलाओं का एक दस्ता तैयार कर लिया था। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो पूरी झांसी में खुशी की लहर दौड़ गई, लेकिन यह शिशु तीन महीने होते-होते चल बसा। इसके बाद तो जैसे रानी का सब कुछ ही छिन गया। उनके पति गंगाधर राव शिशु के चल बसने के इस आघात को सह न सके और 21 नवंबर 1853 को उनका देहांत हो गया। इससे बाद लक्ष्मी बाई बुरी तरह टूट चुकी थीं। अपनी प्रजा के आग्रह पर उन्होंने एक पुत्र को गोद ले लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया था।
जब अंग्रेजों को गंगाधर राव का देहांत हो जाने की भनक लगी तो इसका फायदा उठाकर उन्होंने झांसी पर धावा बोल दिया। रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों द्वारा अचानक किए गए हमले को सहन ना कर सकीं और उन पर टूटने की ठान कर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने की घोषणा कर दी। इसके लिए पूरी झांसी ने उनका भरपूर साथ दिया।
रानी लक्ष्मीबाई के दो विश्वसनीय कुशल तोपची गौस खां और खुदा बख्श ने चारों ओर से किले की मजबूत घेराबंदी कर दी। रानी ने अपनी पीठ पर दत्तक पुत्र को बांधकर अंग्रेजों से लोहा लिया और टूट पड़ीं बिजली की तरह। अकेली रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए पर विधि का विधान कोई नहीं जानता। लक्ष्मीबाई का एक सहयोगी जो अंग्रेजों से मिला हुआ था उसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। जिस कारण लक्ष्मीबाई को कालपी की ओर निकल कर भागना पड़ा, पर दुर्भाग्य से रानी के पैर में अंग्रेजों द्वारा चलाई एक गोली लग गई। जिसके कारण उनकी गति धीमी हो गई और सामने आए नाले को उनका घोड़ा पार न कर सका। तब तक अंग्रेज अधिकारी भारी फौज लेकर आ गए। तभी एक अंग्रेज सिपाही ने रानी पर पीछे से प्रहार कर दिया। इस घटना में रानी लक्ष्मीबाई की गर्दन का दाहिना भाग और आंख लहूलुहान हो गई।
उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया और जाते-जाते भी दो अंग्रेजों का काम तमाम कर दिया। मरते दम तक रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की और देशवासियों को अंग्रेजों से लड़ने के लिए प्रेरित करते हुए इस जंग को जीत गईं।