सावन का महीना अपने रंग में है और बोल बम के नारों से समूचा वातावरण गुंजायमान है । भगवान भोलेनाथ की कृपादृष्टि पाने के लिए विशेषकर सावन के माह में भक्त और श्रद्धालु कोई कसर नहीं छोड़ते। देश के कोने-कोने में स्थित छोटे-बड़े हर शिवालय और शिव मंदिर में शिवभक्तों का अपार जनसमूह उमड़ता है ।
इसी क्रम में हम आपको आज केदारनाथ के ज्योतिर्लिंग की महिमा बताने जा रहे हैं, जिसके दर्शन मात्र से जीवन सफल हो जाता है ।
देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है, केदारनाथ। कहा जाता है कि केदारेश्वर महादेव के नाम से इस मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण पांडवो के द्वारा कराया गया था। इस स्थान और इस ज्योतिर्लिंग का महात्मय बहुत अधिक है और इस बात को पुख्ता करता है कई हिन्दू धर्म ग्रंथो में इस ज्योतिर्लिंग का वर्णन। स्कन्द पुराण में खुद भगवान शिव इस ज्योतिर्लिंग के विषय में स्वयं ही बताते हैं। स्कन्द पुराण में भगवान शिव और मां पार्वती की बातचीत का वर्णन आया है, उस बातचीत के दौरान ही भगवान शिव मां पार्वती को केदारनाथ के विषय में बताते हुए कहते कि “हे पार्वती, यह स्थान उतना ही प्राचीन है जितना मैं हूँ, इस स्थान पर ही मैंने सृष्टि रचना के लिए ब्रह्मा के रूप में परब्रह्म को प्राप्त किया था। तभी से यह स्थान मेरा चिर परिचित आवास है। यह केदार खंड मेरा चिरनिवास होने के कारण भू-स्वर्ग के सामान है।”
स्कन्द पुराण के केदारखंड में कहा गया है कि “केदारनाथ के दर्शन किए बिना यदि कोई बद्रीनाथ के दर्शन करता है तो उसकी यात्रा व्यर्थ जाती है।”
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नर-नारायण की कथा –
पौराणिक कथाओं में भी इस स्थान का काफी वर्णन किया गया है। एक कथा के मुताबिक इस स्थान पर भगवान विष्णु के अवतार नर व नारायण ने भगवान शिव की तपस्या की थी और उनसे यहां पर ज्योतिर्लिंग के रूप में सदैव रहने का वर मांगा था, भगवान शिव ने उनको वर दिया और इस स्थान पर ज्योतिर्लिंग रूप में सदैव के लिए स्थापित हो गए।
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पांडवों की कथा –
कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने अपना राज्य और राजपाठ छोड़ दिया था और भ्रातहत्या के अपराध से मुक्त होने के लिए हिमालय के इसी क्षेत्र में तप करने के लिए आये थे और भगवान शिव की आराधना की थी पर भगवान उनसे गुस्सा थे इसलिए वह प्रकट नहीं हुए बल्कि एक भैंसे का रूप बना कर पशुओं के ही झुंड में घूमने लगे, समय होने पर सभी जानवर जाने लगे परंतु वह वहीं घूमते रहें इस बात पर भीम को कुछ शक हुआ और उसने जैसे ही भैंस बने भगवान शिव को पकड़ने के लिए हाथ आगे किया की वह भैंसा गायब होने लगा परंतु फिर भी भीम ने उस भैंसे की पीठ का त्रिकोणात्मक भाग पकड़ लिया।पांडव लोगों की इतनी कठोर भक्ति देख कर भगवान शिव प्रसन्न हुए और पांडवों को दर्शन दे दिए। उस समय से ही भगवान शिव भैंसे की पीठ की आकृति वाले ज्योतिर्लिंग के रूप वहां पूजे जाते हैं इसलिए ही इस ज्योतिर्लिंग को “केदार महिष” भी कहते हैं, जिसका अर्थ होता है “भैंसे की पीठ का भाग।”
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6 माह तक स्वयं ही जलता है दीपक –
जानकारी के लिए बता दें शीतकाल में मंदिर के मुख्यद्वार बंद कर दिए जाते हैं और मंदिर के द्वार फिर दीपावली पर्व के दूसरे दिन ही खुलते हैं। इस प्रकार से करीब 6 महीने बाद मंदिर के मुख्यद्वार खुलते हैं। शीतकाल के समय पंडित लोग यहां के द्वार बंद करके विग्रह और दंडी को नीचे ले जाते हैं और मंदिर में सफाई करके, वहां एक दीपक जलाकर छोड़ जाते हैं। इसके 6 माह के बाद जब इस मंदिर के द्वार खोले जाते हैं तो दीपक वैसे ही जलता मिलता है और वैसी ही सफाई मंदिर में मिलती है जैसी वह छोड़ गए थे, जबकि शीत ऋतु में बंद होकर खुलने के 6 माह के अंतराल तक इस मंदिर के आस-पास कोई परिंदा भी नहीं रहता है।
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भीषण आपदा में भी मंदिर खड़ा रहा –
2013 की आपदा तो आप लोगों को याद ही होगी, उस समय हजारों लोग उस जल प्रलय में बह गए थे, जो कि केदारनाथ में हुई थी परंतु मंदिर को कुछ नहीं हुआ। वह इस प्रलय के दौरान भी स्थाई होकर खड़ा रहा।
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जानकारी यहां पहुंचने के मार्गों की –
यदि आप वायु मार्ग से जाना चाहते हैं तो यह सुविधा आपको जौलीग्रांट हवाई अड्डे तक ही मिल पाती है, जो की उत्तराखंड में है। इसके बाद फाटा तथा गुप्त काशी में हैलीकाप्टर के केदारनाथ जाने की सुविधा आपको मिल जाती है। इसके अलावा यदि आप रेल मार्ग से जाना चाहते हैं तो यह सुविधा आपको ऋषिकेश और देहरादून तक ही मिल पाती है और यदि आप सड़क मार्ग से जाते हैं तो आपकों ऋषिकेश, श्रीनगर और रूद्रप्रयाग होते हुए मुनकटिया नामक स्थान पर पहुंचना होता है। गौरीकुंड से आपको 23 किमी की खड़ी चढ़ाई स्वयं ही तय करनी होती है और उसके बाद ही भक्त यहां पहुचते हैं। तो सावन के हरीतिमा में स्वयं को रंगिये और भगवान रूद्र की भक्ति में तल्लीन रहिये।