यूं तो आगरा का विश्व प्रसिद्ध ताजमहल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल और अपने प्रेम को बयां करने के लिए बनवाया था, पर बहुत ही कम लोग जानते हैं कि ताजमहल बनने से पहले ही मुमताज महल की मृत्यु हो चुकी थी। बतौर बुरहानपुर गर्वनर शाहजहां यहां के किले में लगभग पांच वर्ष तक रहे। यह किला शाहजहां को इतना पसंद था कि अपने कार्यकाल के पहले तीन वर्षों में ही उन्होंने किले की छत पर दीवाने आम और दीवाने खास नाम से दो दरबार बनवा दिए थे। शाहजहां ने किले में इन सबसे अलहदा एक ऐसी चीज बनवाई थी जहां वे अपनी बेगम के साथ सुकून के पल बिताते थे।
बुरहानपुर गर्वनर के मुताबिक मुमताज की मौत भी बुरहानपुर में ही हुई थी। शाहजहां ने आगरा में ताजमहल बनवाकर अपनी प्रिय बेगम को वहां दफनाया था, लेकिन शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि ताजमहल बनने तक मुमताज के मृत शरीर को बुरहानपुर में ही दफनाया गया था। उनके शरीर को बुरहानपुर के बुलारा महल में दफना दिया गया था।
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आज भी भटकती है मुमताज की आत्मा–
कहते हैं कि 400 वर्ष पूर्व जब मुगलिया सल्तनत की बेगम मुमताज की मौत बुलारा महल में हुई थी तब शाहजहां बुरहानपुर में ही ताजमहल का निर्माण कराने वाले थे, परंतु किसी कारणवश यह संभव न हो सका। जब आगरा में ताजमहल बनकर तैयार हुआ तो वहां मुमताज की देह को ले जाकर दफनाया गया। यहां के रहवासियों का मानना है कि मुमताज की देह तो यहां से निकाल ली गई पर आत्मा आज भी इसी महल में है। लोगों की मानें तो इन खंडहरों में आज भी मुमताज की आत्मा भटकती है।
यहां के निवासियों के अनुसार उन्हें अक्सर महल से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आती हैं। इन आवाजों का आना यहां के लोगों के लिए आम बात है। हालांकि, आज तक यहां आने वाले किसी भी शख्स को मुमताज की आत्मा ने परेशान नहीं किया और न ही नुकसान पहुंचाया है। मौजूद तथ्यों के आधार पर सन् 1631 में यहां अपनी बेटी को जन्म देने के कुछ दिनों बाद ही मुमताज चल बसी थीं। कहते हैं कि यही वजह है कि उनकी आत्मा इस महल में ही बस गई।
साढ़े चार एकड़ में फैला है किला
किले का निर्माण फारूकी शासनकाल में मीरां एना आदिल शाह फारूकी बादशाह ने 1501 में बनवाया था। उन्हें आदिल शाह फारूकी (प्रथम) के नाम से भी जाना जाता है। ताप्ती नदी के किनारे साढ़े चार एकड़ क्षेत्र में फैला किला दो भागों में बंटा है। एक हिस्सा पुरुषों के लिए और दूसरा महिलाओं का था। किले की लंबाई 600 फीट और चौड़ाई 330 फीट है। किले के दोनों हिस्से 1 लाख 98 हजार वर्ग फीट में फैले हैं। 7 मंजिला शाही किले की 5 मंजिलें आज भी मजबूती के साथ खड़ी हैं। किले की दीवार ताप्ती नदी के किनारे से लगभग 80 फुट उंची है।
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बुरहानपुर में ही असली कब्र
बुहरानपुर स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर दूर शहर के बीच बहने वाली ताप्ती नदी के उस पार जैनाबाद (फारुकी काल), जो कभी बादशाहों की शिकारगाह (आहुखाना) हुआ करता था। दक्षिण का सूबेदार बनाने के बाद शहजादा दानियाल ने इस जगह को अपने पसंद के अनुरूप महल, हौज, बाग-बगीचे के बीच नहरों का निर्माण करवाया। 8 अप्रैल 1605 को मात्र तेईस साल की उम्र मे सूबेदार की मौत हो गई। इसके बाद आहुखाना उजड़ने लगा। जहांगीर के शासन काल में अब्दुल रहीम खानखाना ने ईरान से खिरनी एवं अन्य प्रजातियों के पौधे मंगवाकर आहुखाना को फिर से ईरानी बाग के रूप में विकसित कराया। इस बाग का नाम शाहजहां की पुत्री आलमआरा के नाम पर रखा गया।
बादशाहनामा के लेखक अब्दुल हामिद लाहौरी साहब के मुताबिक शाहजहां की प्रेयसी मुमताज महल की जब प्रसव के दौरान मौत हो गई तो उसे यहीं पर स्थाई रूप से दफ़न कर दिया गया था। जिसके लिए आहुखाने के एक बड़े हौज़ को बंद करके तल घर बनाया गया और वहीं पर मुमताज के जनाजे को छह माह रखने के बाद शाहजहां का बेटा शहजादा शुजा, सुन्नी बेगम और शाह हाकिम वजीर खान शव को लेकर बुहरानपुर के इतवारागेट-दिल्ली दरवाज़े से होते हुए आगरा ले गए। जहां पर यमुना के तट पर स्थित राजा मान सिंह के पोते राजा जय सिंह के बाग में बने ताजमहल में सम्राट शाहजहां की प्रेयसी एवं पत्नी मुमताज महल के जनाजे को दोबारा दफना दिया गया।