बेटियों ने मां का अंतिम संस्कार कर पेश की अनोखी मिसाल

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‘लबों पर उसके कभी बद्दुआ नहीं होती। एक मां ऐसी होती है जो कभी खफा नहीं होती। इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां जब गुस्से में होती है तो बस रो देती है।’ ऐसी होती है मां। जिसके कदमों तले लोग जन्नत मानते हैं। जिसकी एक छुअन ही बच्चे के दुख दर्द को दूर कर देती है। जिसके दिल में बस ममता का सागर और औलाद के लिए इंद्रधनुषी सपने ही होते हैं, लेकिन अब क्या जमाना इतना बदल गया है कि लोग अपनी मां, जिसने तुम्हें नौ महीने अपनी कोख में संभाले रखा उसे नजरअंदाज करते जा रहे हैं। आज हम आपको एक ऐसी खबर बताने जा रहे हैं जिसको सुनकर आप बेटों से ज्यादा बेटियों पर प्यार बरसाने को मजबूर ना हो जाएं तो कहना।

वैसे तो एकतरफ जहां देश में बेटा-बेटी को बराबर दर्ज देने की बात कही जाती है, लेकिन हमारे उसी समाज में अभी भी जमाने की कुछ ऐसे रस्में हैं जिनको निभाने के लिए सिर्फ बेटों की ही जरूरत पड़ती है, लेकिन आज की हमारी ये खबर एक पत्थर दिल बेटे की है। जो अपनी मां की लाश को कंधा देने तक नहीं आया क्योंकि मां कुष्ठ रोग पीड़ित थी। वहीं बेटे के ना आने पर बेटियों ने समाज की एक बेदर्दी रस्म को तोड़ने का काम किया है। उन्होंने ना सिर्फ अपनी मां की लाश को कंधा दिया बल्कि उसके अंतिम संस्कार की सभी क्रियाएं भी खुद पूरी की।

ek-kirdare-bekasi-hai-maa-maa-ka-pyaarImage Source: http://1.bp.blogspot.com/

यह मामला उड़ीसा के बरगाह जिले का है। जहां एक कुष्ठ रोग पीड़ित महिला की लाश को कंधा देने के लिए गांव वाले तो दूर उसका बेटा तक नहीं आया। करीब 9 घंटे के लंबे इंतजार के बाद फिर उस महिला की बेटियों ने ही अपनी मां को आखिरी कंधा दिया और उसे श्मशान लेकर पहुंची। जिसके बाद उन्होंने अंतिम संस्कार की सभी क्रियाएं पूरी की। महिला की बेटियों ने बताया कि बेशक हमारा समाज महिलाओं को अर्थी को कंधा देने की इजाजत ना देता हो, लेकिन उसी समाज ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया।

दरअसल बता दें कि देई प्रधान नामक इस महिला को कुष्ठ रोग होने के कारण उसके पति ने भी उसे 15 साल पहले छोड़ दिया था। गांव वालों ने उनके परिवार को गांव से भी बाहर निकाल दिया। उन लोगों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया गया। मां की मौत हुई तो पास के गांव में रह रहे बेटे ने भी मां की मौत की खबर सुनकर पहुंचने की जहमत नहीं उठाई। जिसके बाद उन बेटियों को ही सब कुछ खुद ही करना पड़ा। जिससे आज ये बात साबित हो जाती है हमारा समाज कभी-कभी किसी के प्रति कितना उदासीन हो सकता है।

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