आरबीआई गर्वनर के टीचर झोपड़ी में बिता रहे हैं अपनी जिंदगी

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खुद के लिए या फिर अपने परिवार के लिए हर कोई जीता है लेकिन दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनों के लिए नहीं बल्की समाज और देश के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर देते हैं, उन्ही में से एक हैं आईआईटी दिल्ली के एक पूर्व प्रोफेसर जिनका नाम है आलोक सागर। आलोक दिल्ली में आराम की ज़िंदगी को छोड़ कर गरीब आदिवासियों की जिंदगी खुशहाल बनाने की मुहिम में लगे हैं इसके लिए उन्होंने अपनी पहचान तक छुपा ली है। प्रोफेसर आलोक आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन जैसे नामी गिरामी सहित देश की बड़ी हस्तियों को पढ़ा चुके हैं। लेकिन लीक से हट कर कुछ करने की सोच ने उनकी जिंदगी बदल दी है। आज उनका हुलिया देख कर कोई भी उनकी शिक्षा और उनकी काबीलियत को नहीं आंक सकता है।

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आलोक सागर जी 20 जनवरी 1950 को दिल्ली में एक मध्यम वर्गीय परिवार में पैदा हुए । आलोक बचपन से कुशाग्र बुद्धी के थे लेकिन समाज में व्याप्त गरीबी को देख कर उनका मन गरीबों की मदद और उनकी शिक्षा के लिए बेचैन हो उठा। IIT दिल्ली में इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद वो उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए। सन् 1977 में अमेरिका के हयूस्टन यूनिवर्सिटी टेक्सास से शोध की डिग्री ली। इस बीच टेक्सास यूनिवर्सिटी से डेंटल ब्रांच में पोस्ट डॉक्टरेट और समाजशास्त्र विभाग, डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा में फेलोशिप भी की। अपनी पढ़ाई पूरी कर वो वतन वापस लौट आए।

परिवार के हर सदस्य के पास है विदेशी डिग्रियां

आलोक सागर के पिता सीमा व उत्पाद शुल्क विभाग में अधिकारी थे। इनके छोटे भाई अंबुज सागर भी दिल्ली आईआईटी में प्रोफेसर है। बहनें अमेरिका और कनाडा में तो एक बहन जेएनयू की कर्मचारी थीं। वैसे आलोक जी को कई भाषाओं का ज्ञान है वो आदिवासियों से उन्हीं की बोली में फर्राटे से बोलते हैं।

img-20160515-wa0059_14633Image Source :http://i9.dainikbhaskar.com/

ज़िदगी के ढाई दशक बिताए आदिवासियों के बीच

बैतूल में शाहपुर के कोचमऊ गांव में आलोक जी पिछले 25 सालों से आदिवासियों के बीच रह रहे हैं। अब तो उनका रहन-सहन भी आदिवासियों की तरह हो गया है। उनके बारे में किसी को जानकारी भी नहीं होती अगर बीते दिनों घोड़ाडोंगरी उपचुनाव में उनके खिलाफ कुछ लोगों द्वारा बाहरी व्यक्ति के तौर पर शिकायत नहीं की गई होती । पुलिस से शिकायत के बाद जांच पड़ताल के लिए उन्हें थाने बुलाया गया। आलोक ने एक ज़िम्मेदार नागरिक की तरह अपनी पूरी जानकारी थाने में दी तब जाकर पता चला कि यह व्यक्ति कोई सामान्य ग्रामीण नहीं बल्कि एक पूर्व प्रोफेसर हैं ।

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आदिवासियों की ज़िदगी संवारने में लगे हैं आलोक

सन् 1990 में अपनी पहचान को एक संदूक कैद कर के वो लगातार बैतूल के पिछड़े इलाके में आदिवासियों के साथ सादगी से जीवन बीता रहे हैं। आर्थिक उत्थान के लिए गांव में फलदार पौधे लगाते हैं। अब हजारों फलदार पौधे लगाकर आदिवासियों में गरीबी से लड़ने की जंग लड़ रहे हैं। ग्रामीणों के साथ चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, किन्नू, संतरा, रीठा, मुनगा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के सैकड़ों पेड़ लगा चुके हैं जिससे लोगों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई है।

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शिक्षा का जगा रहे हैं अलख

आलोक सागर बच्चों की साक्षरता के लिए हर संभव कोशिश में जुटे हैं। साइकिल से वो गांव-गांव आदिवासी बच्चों को पढ़ाने के लिए घूमते हैं साथ ही पौधों की देखरेख भी करते हैं। आज उनकी मेहनत का नतीजा ये है कि आदिवासी बच्चे शिक्षा के लिए गांवों से निकल कर शहरों में पढ़ाई कर रहे हैं और कुछ तो रोज़गार में लग कर परिवार को मदद करने में लगें हैं।

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