सत्य कथा – जब महात्मा गांधी ने कहा “मैं तिरंगे को सलाम नहीं करूंगा”

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बहुत कम लोग जानते हैं कि आज जो स्वरूप हमारे तिरंगे का है उसके लिए कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं है बल्कि यह अनेक लोगों की अलग-अलग समय में सोच और अलग-अलग समय में बने झंडों के स्वरूपों का अंतिम नतीजा है, यानि आज का तिरंगा अपने जन्म से अब तक कई प्रकार के अलग-अलग रूपों से होकर गुजरा है। आइये सबसे पहले हम आपको बताते हैं अपने देश के राष्ट्रीय ध्वज की विकास यात्रा को और आपको इसमें यह भी पता लगेगा की महात्मा गांधी ने तिरंगे को सलाम करने से मना क्यों कर दिया था।

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समय था 2 अप्रैल 1931 का, उस समय कांग्रेस ने एक कमेटी बनाई जिसमें 7 सदस्य थे, यह कमेटी उस समय राष्ट्रीय ध्वज को अंतिम रूप देने के लिए बनाई गई थी। 1931 को करांची में इस कमेटी के सदस्य “पट्टाभी सितारमैया” ने राष्ट्रीय झंडे को अंतिम रूप देने के बाद में पेश कर दिया। इस ध्वज में ऊपर केसरिया तथा नीचे सफ़ेद रंग की पट्टी थी और बीच में एक नीले रंग का चक्र था। इस ध्वज के नीचे ही आजादी की अंतिम लड़ाई लड़ी गई थी।

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आजादी मिलने के बाद में अंग्रेजो ने भारत को छोड़ कर जाने का फैसला कर लिया, उस समय फिर से राष्ट्रीय ध्वज का सवाल खड़ा हुआ और उस समय संविधान सभा ने डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक नई कमेटी का गठन 23 जून 1947 को किया तथा अगले दिन यानि 24 जून को अंतिम वायसरॉय लार्ड माउंटबेटेन ने अपना प्रस्ताव दिया की भारत और ब्रिटेन के लंबे संबंध रहें हैं इसलिए भारत के झंडे के एक कोने में ब्रिटिश यूनियन जैक का निशान भी होना चाहिए पर अधिकतर लोग इस प्रस्ताव के खिलाफ थे।

E.A. Ministry/December, 1958, 5 The President of India Dr. Rajendra Prasad arrived in Kuala Lampur on December 6, 1958 on a three-day Date visit to Malaya. Photo shows the President of India proposing the toast to the health of His Majesty the Yang Di-Partuan Agong, the Government and the people of the Federation of Malaya at a Royal Banquet held in his honour at Kuala Lumpur on December 6. On the extreme right is Her Majesty the Raja Permaisuri Agong, and on the extreme left. Her Highness the Tengku Ampuan of Selangor.Image Source:

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे की संवैधानिक रूप से घोषणा कर दी, उस समय भी तिरंगे के तीनों रंगों की अहमियत वैसी ही रखी गई थी जैसी की तिरंगे के निर्माण के समय इनके बारे में सोचा गया था पर बस एक बदलाव कर दिया गया था, वह यह की तिरंगे की बीच में स्थित “चरखे” की जगह “अशोक चक्र” ने ली थी।

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इस बदलाव के साथ में तिरंगा अब राष्ट्रीय ध्वज बन चुका था पर गांधी जी इस बदलाव के खिलाफ थे इसलिए 6 अगस्त 1947 को गांधी जी ने कहा कि “मेरा ये कहना है कि अगर भारतीय संघ के झंडे में चरखा नहीं हुआ तो मैं उसे सलाम करने से इंकार करता हूं।”

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असल में गांधी जी का मानना था कि यह चक्र “अशोक की लाट” से लिया गया है जो की हिंसा का प्रतीक है और भारत की आजादी की जंग अहिंसा के सिद्धांतो पर लड़ी गई है इसलिए अशोक चक्र भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर नहीं होना चाहिए पर पटेल जी और नेहरू जी ने गांधी जी को समझाया की तिरंगे के चक्र का मतलब विकास है और यह अहिंसा का ही प्रतीक है, बाद में काफी अनमने मन से गांधी जी ने इस झंडे को स्वीकृति दे दी और 15 अगस्त 1947 के दिन भारत में हमारा वर्तमान तिरंगा लहराया गया।

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किसी भी लेखक का संसार उसके विचार होते है, जिन्हे वो कागज़ पर कलम के माध्यम से प्रगट करता है। मुझे पढ़ना ही मुझे जानना है। श्री= [प्रेम,शांति, ऐश्वर्यता]

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